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________________ सूपगडो १ ५१२ जुगुप्सा का एक अर्थ है--घृणा । वृत्तिकार ने इस शब्द का अर्थ - पाप कर्म से घृणा करना किया है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न किया है । उद्विग्न होना । ' ४१. सदा संयमी (सदा जता) इसका अर्थ है - प्रव्रज्या - काल से लेकर जीवन पर्यन्त संयम का आचरण करने वाला । ४२. विशिष्ट पराक्रमी (विप्पणमंति) इसका अर्थ है -- ज्ञान, दर्शन और चारित्र में विविध प्रकार से पराक्रम करना, उनकी वृद्धि में सतत प्रयत्नशील रहना, संयमानुष्ठान के प्रति तत्पर रहना ।" ४३. वाग्वीर (विष्णत्ति- वीरा) विज्ञप्ति वीर का अर्थ है- जो वाग्वीर हैं, करण-वीर नहीं, जो केवल कहने में वीरता दिखाते हैं, किन्तु करने की वेला आने पर पीछे खिसक जाते हैं।' उनके अनुसार इसका अर्थ है - हिंसा तथा हिंसा करने वालों से विज्ञप्ति का अर्थ ज्ञान या विज्ञापन है । जो ज्ञान या विज्ञापन मात्र से वीर हैं, अनुष्ठान से नहीं, वे विज्ञप्ति-वीर कहलाते हैं। वैसे व्यक्ति ज्ञान मात्र से ही लक्ष्य की प्राप्ति मान लेते हैं, किन्तु ज्ञान मात्र से इष्ट अर्थ की प्राप्ति नहीं होती। कहा है'अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥ ४४. छोटे (डहरे) —शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी बहुत सारे लोग मूर्ख ही रह जाते हैं। जो पुरुष शास्त्रोक्त क्रिया से युक्त होता है वह विद्वा है । औषधि के ज्ञान मात्र से कोई भी रोगी स्वस्थ नहीं हो जाता। नीरोग होने के लिए उसे औषधि का सेवन करना ही होता है ।" श्लोक १८: ४५. बड़े (बुड्डे) अध्ययन १२ : टिप्पण ४१-४६ पूर्णिकार ने इसका अर्थ कुन्दु आदि सूक्ष्म जीव अथवा सूक्ष्मकाविक जोन किया है।" बड़े शरीर वाले अथवा बादर प्राणी । Jain Education International ४६. जो आत्मा के समान देखता है ( ते आततो पासइ) इसका अर्थ है--- जो व्यक्ति इन सब प्राणियों को आत्मा के समान देखता है । जिस प्रमाण वाली मेरी आत्मा है, उसी प्रमाण १. वृत्ति, पत्र २२७ : पापं कर्म जुगुप्समानाः । २. चूर्ण, पृ० २१५: तां भूताभिसंकां (हिंसां) तत्कारिणश्च जुगुप्साना उद्विजमाना इत्यर्थः । ३ चूर्ण, पृ० २१५ : सदेति सर्वकालं प्रव्रज्याकालादारभ्य यावज्जीवं । ४. चूर्ण, पृ० २१५: ज्ञानादिषु विविधं प्रणमन्ति पराक्रमन्त इत्यर्थः । ५. बुति पत्र २२७ विविधं संयमनुष्ठानं प्रति 'प्रथमन्ति' प्रतीभवन्ति । ६. चूणि, पृ० २१५: विज्ञप्तिमात्रवीरा एवैके भवन्ति, ण तु करणवीराः । ७. वृत्ति पत्र २२० विज्ञप्तिज्ञानं सन्मात्रेणेव वीरा नानुष्ठानेन न च ज्ञानादेवाभिलधितार्यावाप्तिरपनायते तथाहि अधीत्व शास्त्राणि ८. चूर्ण, पृ० २१५ : डहराः सूक्ष्माः कुन्थ्वादयः सुहमकायिका वा । E. (क) चुणि, पृ० २१५: बुड्ढा महासरीरा बादरा वा । (ख) वृत्ति, पत्र २२७ । वृद्धाः बादरशरीरिणः । For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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