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________________ सूडो १ ५१३ अध्ययन १२ : टिप्पण ४७ वाली आत्मा सबकी है, हाथी और कुन्थु की आत्मा भी समान प्रमाणवाली है ।" जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी छोटे-बड़े प्राणियों को दुःख प्रिय नहीं है-इससे भी आत्मतुस्यता प्रमाणित होती है।" गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- भंते ! पृथ्वीकायिक जीव आक्रान्त होने पर किस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं ? भगवान् ने कहा- 'गौतम ! जैसे एक तरुण और शक्तिशाली मनुष्य दुर्बल और जर्जरित मनुष्य के मस्तक पर मुष्ठि से जोर का प्रहार करता है, उस समय वह कैसी वेदना का अनुभव करता है ?" 'भंते ! वह अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है।' 'गौतम ! जैसे वह जर्जरित मनुष्य अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है, उससे भी अनिष्टतर वेदना का अनुभव पृथ्वीकायिक जीव आहत होने पर करता है।" इसी प्रकार सभी जीव ऐसी ही घोर वेदना का अनुभव करते हैं । आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में पृथ्वीकायिक आदि स्थावर प्राणियों और त्रसकायिक जीवों में वेदना - बोध का स्पष्ट निदर्शन प्राप्त है । वेदना की समान अनुभूति के कारण भी उनकी आत्म-तुल्यता प्रमाणित होती है ।" बृहत्कल्प चूर्णिकार का यह स्पष्ट अभिमत है कि स्थावर निकाय में चेतना का विकास क्रमशः अधिक होता है-चेतना का सबसे अल्प विकास पृथ्वीकायिक जीवों में है, उनसे अधिक अप्कायिक जीवों में, उनसे अधिक तेजस्कायिक जीवों में, उनसे अधिक वायुकायिक जीवों में और उनसे अधिक वनस्पतिकायिक जीवों में । स्थावर जीवों में वनस्पति के जीवों का चैतन्य विकास सबसे अधिक है ।" आज का विज्ञान भी इसे मान्यता देता है। इस चैतन्य विकास के आधार पर स्थावर जीवों का संवेदन-बोध भी स्पष्टस्पष्टतर होता जाता है । ४७. इस महान् लोक की (लोगमिणं महंतं ) यहां लोक को महान् कहा गया है। इसके अनेक कारण हैं- १. यह लोक सूक्ष्म और बादर छह प्रकार के जीवों से भरा पड़ा है, इसलिए महान् है । २. यहां के सभी प्राणी आठ प्रकार के कर्मों से आकुल हैं, इसलिए महान् है । ३. यह लोक अनादि और अनन्त है, इसलिए महान् है तथा यहां कुछ प्राणी ऐसे हैं जो किसी भी काल में सिद्ध नहीं होंगे, इसलिए महान् है । १. चूर्णि पृ० २१५, २१६ आत्मना तुल्यं आत्मवत्, यत्प्रमाणो वा मम आत्मा एतत्प्रमाणः कुन्धोरपि हस्तिनोऽपीति । २. दशकालिक निक्ति, गाथा १५४ : जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो ॥ अक्कंते समाणे केरिसियं वेदणं पञ्चणुरभवमाणे एवं पुरिसं पुण्यं राजरिय "केरिसियं वेदणं पञ्च णन्भवमाणे विहरति ? पुरिसस वेदणाहितो पुढविकाइए अवकंते समाणे एत्तो अणितरियं ४ आयारो, प्रथम अध्ययन, सूत्र २८-३०, ५१-५३, ८२-८४, ११०-११२, १३७-१३६, १६१-१६३ । ५. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ७५, चूणि तं च सव्वथोवं पुढविकाइयाणं, कस्मात् ? निश्चेष्टत्वात् । ततः क्रमाद् यावद् वनस्पतिकाइयाणं ३. भगवई १९३५ : पुढविकाइए णं भंते! पुरिसे सपने बल बलवं गोयमा ! पुरिसे विसुद्धतरं । ६. (क) चूर्ण, पृ० २१६ : महान्त इति छज्जीवकायाकुलं अष्टविधकर्माकुलं वा, बलिपिडोवमाए महंतो लोगो, अथवा कालतो महंते अनादिनिधनः अस्त्येके भव्या अपि ये सर्वकालेनापि न सेत्स्यन्ति । अथवा द्रव्यत: क्षेत्रतश्च लोकस्यान्तः, कालतो भावतश्च नान्तः । (ख) वृति पत्र २२७ पीवदमवार कुलस्वाहा यदि वाहनाद्यनिधनत्वान्हा लोक तवाहिन्या अपन सर्वेणापि कालेन न त्स्यन्तीति, यद्यपि द्रव्यतः षद्रव्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दश रज्जुप्रमाणतया सावधिको लोकस्तचापि तो मातश्चानाद्यनिधनत्वात् पचानाम्महान्तमुत इति । Jain Education International विहरइ ? गोयमा ! से जहानामए – केइ पति अभिषेक सेणं अणिट्ठ समणाउसो ! तस्स णं गोयमा ! "वेदणं पञ्चणुभवमाणे विहरइ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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