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सूयगडो १
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अध्ययन १२:टिप्पण ४८-५० ४. द्रव्य की दृष्टि से लोक षड् द्रव्यात्मक और क्षेत्र की दृष्टि से चौदह रज्जु प्रमाण वाला होने के कारण सावधिक है। काल और भाव की दृष्टि से अन्त रहित तथा पर्यायों की दृष्टि से अनन्त होने के कारण वह महान है। ४८, उपेक्षा करता है (उबेहती)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. उपेक्षा करना, सर्वत्र मध्यस्थ रहना। २. देखना।
वृत्तिकार ने केवल एक ही अर्थ किया है-उत्प्रेक्षा करना। ४६. बुद्ध अप्रमत्त पुरुषों में (बुद्धप्पमत्तेसु)
व्याकरण की दृष्टि से यहां दो पदों में संधि की गई है-बुद्धे+अप्पमत्तेसु अथवा बुद्धे+पमत्तेसु । चूर्णिकार ने इन दो पदों का अर्थ इस प्रकार किया है
१. बुद्ध धर्म, समाधि, मार्ग और समवसरण-इन पूर्ववर्ती चार अध्ययनों (९, १०, ११, १२) में वर्णित क्रियाओं के प्रति अप्रमत्त रहता है, तथा जो षड् जीव-निकाय के प्रति संयम रखता है।
२. बुद्ध प्रमत्त अर्थात् असंयत व्यक्तियों में जागृत रहता है। इस अर्थ के संदर्भ में पाठ होगा-'बुद्धे पमत्तेसु'। उत्तराध्ययन ४।६ में 'सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी' पाठ है । वह भी इसी आशय को स्पष्ट करता है ।
३. 'बुद्धे अप्पमत्ते सुठ्ठ परिव्वएज्जा'-ऐसा पाठ भी माना है । इसका अर्थ है-अप्रमत बुद्ध उचित प्रकार से परिव्रजन करे । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं -
१. सभी प्राणियों के स्थान अशाश्वत हैं, इस दुःखमय संसार में सुख का लेश भी नहीं है-ऐसा मानने वाला तत्त्वज्ञ-पुरुष (बुद्ध) संयमी मुनियों में...........। (बुद्धेऽपमत्तेसु) यहां बुद्ध का अर्थ है,- तत्वज्ञ पुरुष और अप्रमत्त का अर्थ है- संयमी मुनि ।
२. बुद्ध पुरुष गृहस्थों में अप्रमत्त रहता हुआ संयमानुष्ठान में परिव्रजन करे।
श्लोक १९: ५०. स्वतः या परतः (आततो परतो वा)
ज्ञान दो प्रकार से होता है--स्वत: अर्थात् अपने अतीन्द्रिय ज्ञान से और परतः अर्थात् दूसरों से सुनकर । जो व्यक्ति विशिष्ट ज्ञानी होता है, सर्वज्ञ होता है वह स्वतः सब कुछ जान लेता है। जो व्यक्ति अल्प ज्ञानी होता है अथवा जो पूर्ण ज्ञानी नहीं है वह दूसरों से ज्ञान प्राप्त करता है।
तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं । वे सब स्वत: जान लेते हैं। गणधर आदि तीर्थंकरों से ज्ञान प्राप्त करते हैं।' १. चूणि, पृ० २१६ : उबेहती उपेक्षते, पश्यतीत्यर्थः, उपेक्षा करोति, सर्वत्र माध्यस्थ्यमित्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र २२७ : ....."उत्प्रेक्षते । ३. चूणि, पृ० २१६ : बुढे नाम धर्म समाधौ मार्गे समोसरणेसु च अप्रमत्तः कायेषु जयणाए य, अथवा प्रमत्तेषु असंजतेषु परिवएज्जासि
त्ति बेमि। अथवा बुद्धे अप्पमत्ते सुट्ठ परिव्वएज्जा। ४. वृत्ति, पत्र २२७, २२८ : एवं च लोकमुत्प्रेक्षमाणो बुद्धः-अवगततत्त्व: सर्वाणि प्राणिस्थानान्यशाश्वतानि, तथा नात्रापसवे संसारे
सुखलेशोऽप्यस्तीत्येवं मन्यमान: 'अप्रमत्तेषु-संयमानुष्ठायिषु यतिषु मध्ये तथाभूत एव परिः-समन्ताद
व्रजेत् परिव्रजेत्, यदि वा बुद्धः सन् 'प्रमत्तेषु'-गृहस्थेषु अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेविति । ५ (क) चूणि, पृ० २१६ : आत्मन: स्वयं तीर्थकरा जाणंति जीवादीन पदार्थान् परतो गणधरादयः । (ख) वृत्ति, पत्र २२८ : स्वयं सर्वज्ञ आत्मनस्त्रलोक्योदरविवरवतिपदार्थदर्शी यथाऽवस्थितं लोकं ज्ञात्वा, तथा यश्च गणधरादिकः
'परत:'--तीर्थकरावेर्जीवादीन् पदार्थान् विदित्वा परेभ्य उपविशति ।
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