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सूयगडो १
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अध्ययन ४ : टिप्पण ६०-६७ १०. तगर (तगरं)
यह वृक्ष कोंकण, अफगानिस्तान आदि में होता है। इसकी जड़ गन्ध-द्रव्य के रूप में काम आती है। इसे मदनवृक्ष भी कहते हैं। ६१. अगर (अगरु)
अगरु नाम का वृक्ष जिसकी लकड़ी सुगंधयुक्त होती है। ६२. खस के (साथ) (उसीरेण)
चूणिकार और वृत्तिकार-- दोनों ने कुष्ठ, तगर और अगर को खस के साथ पीसने की बात कही है। इनको खस के साथ पीसने से सुगन्ध होती है। ६३. मलने के लिए (भिलिंगाय)
चूर्णिकार ने चुपड़ने के अर्थ में इसे देशी शब्द माना है।' ६४. तेल (तेल्लं)
वृत्तिकार ने लोध, कुंकुम आदि से संस्कारित तेल को मुख की कांति बढ़ाने वाला माना है।' ६५. बांस की पिटारी (वेणुफलाई)
चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं-बांस की बनी हुई संबलिका (छाबड़ी), संकोशक, पेटी, करंडक । वृत्तिकार ने दो अर्थ दिए हैं-बांस से बनी पेटी, करंडक ।
श्लोक ४०:
६६. नंदीचूर्ण (गंदीचुण्ण)
होठों को मुलायम करने के लिए अनेक द्रव्यों के मिश्रण से बनाया गया चूर्ण । तुन के वृक्ष को नंदी वृक्ष कहा जाता है।' संभव है इस वृक्ष की छाल से यह चूर्ण निष्पादित होता है । ६७. भाजी (सूव)
पत्रशाक को सूप कहा जाता है।'
१. बृहद् हिंदी कोष । २. (क) चूणि, पृ० ११६ : एतानि हि प्रत्येकशः गंधगाणि भवति ।
(ख) वृत्ति, पृ० ११६ : एतत्कुष्ठादिकम् उगोरेग वीरणीमूलेन सम्पिष्टं सुगन्धि भवति । ३. चूर्णि, पृ० ११६ : मिलिंगाय त्ति देसीभासाए मक्खणमेव । ४. वृत्ति, पत्र ११६ : तैलं लोध्रकुङ्कुमादिना संस्कृत मुखमाश्रित्य । ५. चूणि, पृ० ११६ : वेणुफलाई ति वेलुपयी संबलिका संकोसको पेलिया करण्डको वा । ६. वृत्ति, पत्र ११६ : वेणुफलाई ति वेणकार्याणि करण्डकपेटकादीनि । ७. (क) चूणि, पृ० ११६ : गंदीचुण्णगं नाम जं संजोइमं ओट्ठभक्खणगं ।
(ख) वृत्ति, पत्र ११६ : नन्दीचुण्णगाई ति द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्ठम्रक्षणचूर्णोऽभिधीयते । ८. वृहद् हिंदी कोष । ६. (क) चूर्णि, पृ० ११७ : सूर्व णाम पत्रशाकम् ।
(ख) वृत्ति, पत्र ११७ : सूपच्छेदनाय पत्रशाकच्छेदनार्थम् ।
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