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________________ सूयगडो १ २१८ अध्ययन ४: टिप्पण ८-१०१ ६८. वस्त्र को हल्के नीले रंग से रंगा दे (आणीलं च वत्थं रावेहि) चूर्णिकार कहते हैं-आनील गुटिका से शाटक, सूत अथवा केंचुली रंगा दे। नीले रंग से इस वस्त्र को रंग। मैं कुसुंभे से वस्त्रों को रंगना जानती हूं, तुम रंग ला दो । मैं अपने वस्त्र भी रंग लूंगी तथा मूल्य लेकर दूसरों के वस्त्र भी रंग दूंगी।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है--पहनने के कपड़े गुटिका आदि से ऐसे रंग दो जिससे वे हल्के नीले या पूरे नीले हो जाएं। श्लोक ४१ ६६. तपेली (सुफणि) चूर्णिकार के अनुसार 'फणितं' का अर्थ है-पकाना, रांधना। जिस बर्तन में सरलरूप से पकाया या रांधा जा सके, उस बर्तन को 'सुफणि' कहा जाता है । लाट देशवासियों के अनुसार कढ़ाई सुफणि कहलाती है वराडअ (?), पत्तुल्ला (?) स्थाली, पिठर आदि को सुफणि माना गया है। इन बर्तनों में थोड़े इन्धन से भी ठंडे को गरम किया जा सकता है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-तपेली, बटलोई, बहुगुना (भगोना) आदि ऐसे बर्तन जिनमें छाछ आदि पदार्थ सुखपूर्वक पकाए (उबाले) जाते हैं । ये बर्तन ऊंडे होते हैं, अतः तरल पदार्थ के उबलकर बाहर आने का भय नहीं रहता।' १००. आंवले (आमलगाई) चूर्णिकार ने आंवले के दो प्रयोजन बतलाएं हैं-शिर के बाल धोने के लिए तथा खाने के लिए। वृत्तिकार ने आंवले के तीन प्रयोजन दिए हैं.--१. स्नान के लिए, २. पित्त को शान्त करने के लिए तथा ३. खाने के लिए। १०१. तिलककरनी (तिलगकरणी) चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं१. हाथीदांत या सोने की बनी हुई शलाका जिससे गोरोचन आदि का तिलक किया जाता है। २. गोरोचन आदि पदार्थ जिनसे तिलक किया जाता है। ३. ऐसा ठप्पा (Block) जिसको गोरोचन आदि में डालकर ललाट पर लगाने से तिलक उठ जाता है। ४. जहां तिल तैयार किए जाते हैं या पीसे जाते हैं। १. चूणि, पृ० ११७ : आनीलो नाम गुलिया सावलिया, एतेण साडिगा सुत्तं कंचुगं वा रावेहि णोलीरागे वा इमं वत्थं छुहाहि । अधवा सा सयमेव कसुभगादिरागेण जाणति वत्थाणि रावेतुं तेग अप्पणो वा कज्जे वस्थरागं मग्गाति, जेसि वा रहस्सति मोल्लेण। २. वृत्ति, पृ० ११७ : वस्त्रम् अम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय यथा आनीलम् ईषन्नील सामस्त्येन वा नीलं भवति, उप लक्षणार्थत्वाद्रक्तं वा यथा भवतीति । ३. चूणि, पृ० ११७ : फणित णाम पक्कं रद्धं वा, सुखं फणिज्जति जत्य सा भवति सुफणी, लाडाणं हि कड्ढत्ति तं सुफणि त्ति बुच्चति, सुफणी वराडओ पत्तुल्लओ थाली पिहुडगो वा। तत्थ अप्पेण वि इंधणेणं सुहं सीतकुसुणं उप्फहामो। ४. वृत्ति, पत्र ११७ : सुणि च इत्यादि सुष्ठ सुखेन वा फण्यते --क्वाथ्यते तक्रादिकं यत्र तत्सुफणि-स्थालीपिठरादिकं भाजन मभिधीयते। ५. चूणि, पृ० ११७ : आमलगा सिरोधोवणादी-भक्खणार्थ वा। ६. वृत्ति, पत्र ११७ : आमलकानि धात्रीफलानि स्नानार्थ पित्तोपशमनायाभ्यवहारार्थ वा । ७. चणि, पृ० ११७ : तिलकरणी णाम दंतमइया सुवण्णगादिमइया वा, सा रोयणाए अण्णतरेण वा जोएणं तिलगो कीरद्द, तत्थ छोढुं भमुगासंगतगस्स उरि ठविज्जति तत्थ तिलगो उठेति, अथवा रोचनया तिलकः क्रियते, स एव तिलककरणी भवति, तिला वा जत्थ कोरंति पिस्संति वा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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