SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ४२६ अध्ययन १०: प्रामुख नवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यस्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ (प्रशमरति प्रकरण १२८) ---जो मुनि लौकिक प्रवृत्तियों से मुक्त है, उसको जिस परम सुख की यहां अनुभूति होती है, वह सुख न चक्रवर्ती को उपलब्ध होता है और न इन्द्र को। (घ) तप:समाधि-तपस्या से भावित पुरुष कायक्लेश, भूख, प्यास आदि परिषहों से उद्विग्न नहीं होता। इसी प्रकार वह आभ्यन्तर तप का अभ्यास कर, ध्यान में आरूढ होकर निर्वाणप्राप्त पुरुष की भांति सुख-दुःख से बाधित नहीं होता। दशवकालिक सूत्र में चार समाधियों का वर्णन है -विनयसमाधि श्रुतसमाधि, तपःसमाधि और आचारसमाधि । यह भाव । समाधि है। इस अध्ययन में चौबीस श्लोक हैं । इनमें समाधि के लक्षण और असमाधि के स्वरूप का वर्णन है। समाधि के तीन मुख्य विभाग -- चारित्र समाधि, मूलगुण समाधि और उत्तरगुण समाधि का अनेक श्लोकों में प्रतिपादन हुआ है। पहले तीन श्लोकों में समाधि का सामान्य वर्णन है । चौथे श्लोक से पनरहवें श्लोक तक चारित्र समाधि, बीस से बावीस श्लोकों में मूलगुण समाधि का और शेष दो श्लोकों (२३,२४) में उत्तरगुण समाधि का वर्णन है । चार श्लोकों (१६-१६) में असमाधि प्राप्त मनुष्यों का वर्णन है। विमर्शनीय शब्द २. लाट (श्लोक ३) जो मुनि जिस किसी प्रकार के प्रासुक अशन-पान से जीवन यापन करता है, जो आहार के अभाव में परितप्त नहीं होता वह 'लाढ कहलाता है । यहां यह शब्द मुनि की चर्या का द्योतक है। जैन आगमों तथा व्याख्या साहित्य में 'लाढ' शब्द देशवाची भी है। भगवान् महावीर ने एक बार सोचा-बहुत कर्मों की निर्जरा करनी है। उसके लिए उपयुक्त स्थान है 'लाट' (लाढ) देश । वहां के लोग अनार्य हैं। उनके योग से कर्मों की अधिक निर्जरा होगी। यह सोचकर भगवान् 'लाट' देश में गए ।' आचारांग ६।३२ में 'अह दुच्चर-लाढमचारी' का उल्लेख है। २ घृत (श्लोक १६) जैन आगमों का यह बहु-प्रयुक्त शब्द है। यह विशेषत: मुनि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। किन्तु यह एक साधना की विशिष्ट पद्धति का द्योतक रहा है। जब वह पद्धति विस्मत हो गई, तब यह शब्द उस पद्धति का केवल वाचक मात्र रह गया। 'धुत' समाधि की साधना पद्धति है। बौद्ध परंपरा में तेरह धुत प्रतिपादित हैं। ये सारे धुत क्लेशों को क्षीण करने में सहयोग करते हैं । इनका विस्तृत वर्णन बौद्ध साहित्य में प्राप्त है।" आचारांग के छठे अध्ययन का नाम 'धुत' है। वहां दस धुतों का निर्देश है । धत का शाब्दिक अर्थ है-कंपित करना, धन डालना । आगम के व्याख्याकारों ने इसके अनेक अर्थ किए हैं-वैराग्य, मोक्ष, समाधि आदि-आदि। १. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ६८, ९६ : पंचतु वि य विसयेसु सुत्रेसु वम्वम्मि सा समाधि ति। खेत्तं तु जम्मि खेत्ते काले जो जम्मि कालम्मि ॥ भावसमाधि चतुविध बंसण णाणे तवे चरित्ते य । चतुहि वि समाधितप्पा सम्मं चरणट्ठितो साधू ॥ व्याख्या के लिए देखें-चूणि पृ० १८४, १८५ । वृत्ति पत्र १८७, १८८ । २. वशवकालिक है।४। ३. आवश्यक णि पूर्वभाग, पत्र २६० । ४. विशुद्धिमग भाग १, पृ.६०-८०। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy