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________________ आमुख अनुयोगद्वार में नामकरण के दस हेतु बतलाए हैं। उनमें एक हेतु है-आदान-पद । इसका अर्थ है प्रथम पद के आधार पर अध्ययन आदि का नामकरण करना, जैसे- उत्तराध्ययन के तीसरे अध्ययन का नाम 'चातुरंगीय (प्रा० चाउरंगिज्ज) है, चौथे अध्ययन का नाम 'असंस्कृत' ( प्रा० असंखयं ) है । प्रस्तुत आगम सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के तेरहवें अध्ययन का नाम ' याथातथ्य ( प्रा० अहातहियं ) और दूसरे श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन का नाम 'आर्द्रकीय (प्रा० अद्दइज्जं ) है। ये सारे नाम उन-उन अध्ययनों के प्रथम पद के आधार पर हुए हैं। नियुक्तिकार के अनुसार इस अध्ययन का नाम आदान-पद हेतु से 'आघं' होना चाहिए था, क्योंकि इस अध्ययन के प्रथम श्लोक का प्रथम पद है - ' आघं मतिमं । किन्तु अर्थाधिकार के आधार पर इसका नाम 'समाधि' रखा गया है। समवायांग में भी यही नाम उल्लिखित है । चूर्णिकार ने इस गुणनिष्पन्न नाम 'समाधि' की स्वीकृति के समर्थन में कहा है-जैसे उत्तराध्ययन के चौथे अध्ययन का आदानपद हेतु से नामकरण होना चाहिए था 'असंस्कृत' किन्तु उसमें प्रमाद और अप्रमाद का वर्णन होने के कारण उसका गुणनिष्पन्न नाम 'प्रमादाप्रमाद' भी स्वीकृत है । इसी प्रकार आचारांग सूत्र के पांचवें अध्ययन का आदानपद परक नाम होना चाहिए था 'आवंती' किन्तु वह अध्ययन 'लोकसार' (या लोकसारविजय) कहलाता है । " *******... समाधि का अर्थ है - समाधान, तुष्टि, अविरोध । इसके मुख्य चार भेद हैं १. द्रव्य समाधि-पांच इन्द्रियों के मनो विषयों से होने वाली तुष्टि क्षीर और गुड़ की समाधि अर्थात् अविरोध २. क्षेत्र समाधि - दुर्भिक्ष से उत्पीडित प्राणियों का सुभिक्ष प्रदेश में चला जाना, चिरप्रवासी व्यक्तियों का अपने घर लौट आना । ३. काल समाधि - वनस्पति के जीवों को वर्षा में, उलूक को रात्री में, कौओं को दिन में, मायों को शरद ऋतु में समाधि का अनुभव होता है । अथवा जिसे जिस समय में जितने काल तक समाधि का अनुभव हो । ४. भाव समाधि - इसके चार भेद हैं (क) ज्ञान समाधि - जैसे-जैसे व्यक्ति श्रुत का अध्ययन करता है वैसे-वैसे अत्यन्त समाधि उत्पन्न होती है। ज्ञानार्जन में उद्यत व्यक्ति भोजन-पानी को भूल जाता है । वह कष्टों की परवाह नहीं करता, उनसे उद्विग्न नहीं होता । ज्ञेय की उपलब्धि होने पर उसका जो समाधान होता है, वह अनिर्वचनीय होता है । Jain Education International (ख) दर्शन समाधि - जिन प्रवचन में जिसकी बुद्धि इतनी श्रद्धाशील हो जाती है कि उसे कोई भ्रमित नहीं कर सकता। दीपक की भांति निप्रकम्प हो जाती है । उसकी स्थिति पवनशून्य गृह में स्थित - (ग) चारित्र समाधि इसकी नियति है विषय सुखों से परामुखता निष्चित होने पर भी साधक परम समाधि का अनुभव करता है । कहा है तमसंचारणिसन्नोऽवि मुनिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावह मुति फलो सं चक्कबट्टीवि ?' जो मुनि राग, मद और मोह को नष्ट कर चुके है, जो तृण संस्तारक पर बैठे है (अर्थात् जो निष्कियन है उन्हें जो मुक्ति-सुख का अनुभव होता है, वैसा सुख चक्रवर्ती को कहां ? १. अनुयोगद्वार सूत्र ३१९ । २. नियुक्ति, गाथा १६ : आदाणपदेणाऽऽधं गोण्णं णामं पुणो समाधिति । ३. समवाओ १६।१ । ४. चूर्णि, पृ० १८४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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