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________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ८३ 'गौतम ! द्विप्रदेशी स्कंध स्व की अपेक्षा से आत्मा है, पर की अपेक्षा से आत्मा नहीं है और उभय की अपेक्षा से अवक्तव्य यह संशयवाद या अज्ञानवाद नहीं है। इसमें तत्त्व का निश्चयात्मक प्रतिपादन है। यह प्रतिपादन सापेक्ष दृष्टिकोण से है, इसलिए यह अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। भगवती में आए हुए पुद्गल-स्कंधो की चर्चा के प्रसंग में स्याद्वाद के सातों ही भंग फलित होते हैं । भगवती सूत्र दर्शन युग में लिखा हुआ कोई दार्शनिक ग्रंथ नहीं है। वह महावीरकालीन आगम सूत्र है । इससे यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद को संजयवेलट्टिपुत्त के सिद्धान्त से उधार लेने की बात सर्वथा आधार शून्य है। अज्ञानवादी कहते हैं- अनेक दर्शन हैं और अनेक दार्शनिक। वे सब सत्य को जानने का दावा करते हैं, किन्तु उन सब का जानना परस्पर विरोधी है। सत्य परस्पर विरोधी नहीं होता। यदि उन दार्शनिकों का ज्ञान सत्य का ज्ञान होता तो वह परस्पर विरोधी नहीं होता। वह परस्पर विरोधी है, इसलिए सत्य नहीं है। जैसे म्लेच्छ अम्लेच्छ की भाषा के आशय को समझे बिना केवल उसे दोहरा देता है, वैसे ही सब अज्ञानी (सम्यग्ज्ञानशून्य दार्शनिक) अपने-अपने ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी निश्चयार्थ (वास्तविक सत्य) को नहीं जानते । यदि वे निश्चयार्थ को जानते होते तो परस्पर विरोधी अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते। वे अपने मत-प्रवर्तक को सर्वज्ञ मानते हैं, पर वे स्वयं सर्वज्ञ नहीं हैं तब सर्वज्ञ की बात कसे समझ सकेंगे? असर्वज्ञ सर्वज्ञ को नहीं जानता। कोई व्यक्ति सर्वज्ञ है और उस समय के लोग उसकी सर्वज्ञता को जानना चाहते हैं, किन्तु सर्वज्ञ के द्वारा जो ज्ञेय है उसे वे समग्रता से नहीं जान पाते, इसलिए वे कैसे जान सकते हैं कि वह व्यक्ति सर्वज्ञ है ? दूसरों की चित्तवृत्ति को जानना सरल नहीं है । उपदेष्टा ने किस विवक्षा से क्या कहा है, उसे पकड़ा नहीं जा सकता, इसलिए कोई भी दार्शनिक, भले फिर वह किसी भी दर्शन का अनुयायी हो, निश्चयार्थ को नहीं जानता। वह अपने दर्शन के हार्द को समझे बिना उस म्लेच्छ की भांति वाणी को दोहरा रहा है, शास्त्र की रट लगा रहा है, इसलिए अज्ञान ही श्रेय है।' यह प्रस्तुत सूत्र के वृत्तिकार शीलांकसूरी की व्याख्या है। उनके अनुसार इन तीनों श्लोकों (४१, ४२, ४३) में अज्ञानवाद का समर्थन है और चालीसवें श्लोक से उसका प्रतिपादन शुरू होता है। देखें-१२/१ का टिप्पण। ५३. श्रमण (समणा) चूणिकार ने इसका अर्थ श्रमण और वृत्तिकार ने 'परिव्राजक विशेष' किया है। श्रमणों के अन्तर्गत परिव्राजकों का समावेश १. भगवई १२/२१८, २१६: आया भंते ! दुपएसिए खंधे ? अण्णे दुपएसिए खंधे ? गोयमा ! दुपएसिए खंधे सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं....। से केणठेणं भंते ! एवं....... ? गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया, परस्स आदिठे नो आया, तदुभयस्स आदिठे अवत्तव्वं ...... । २. वृत्ति, पत्र ३५ : एके केचन ब्राह्मणविशेषा: तथा श्रमणाः परिवाजकविशेषाः सर्वेऽप्येते ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं-हेयोपादेयार्थाऽऽविर्भावकं परस्परविरोधेन व्यवस्थितं स्वकं आत्मीयं बदन्ति, न च तानि ज्ञानानि परस्परविरोधेन प्रवृत्तत्वात् सत्यानि,......। ....."यथा मलेच्छः अमलेच्छस्य परमार्थमजानानः केवलं तद् भाषितमनुभाषते, तथा अज्ञानिकाः सम्यग्ज्ञानरहिताः श्रमणा ब्राह्मणा वदन्तोऽपि स्वीयं स्वीयं ज्ञानं प्रमाणत्वेन परस्परविरुद्धार्थभाषणात् निश्चयार्थं न जानन्ति, तथाहि-ते स्वकीयं तीर्थकरं सर्वज्ञत्वेन निर्धार्य तदुपदेशेन क्रियासु प्रवर्तेरन्, न च सर्वज्ञविवक्षा अग्दिशिना ग्रहीतुं शक्यते, नासर्वज्ञः सर्वज्ञं जानातीति न्यायात्, तथा चोक्तम्-'सर्वज्ञोऽसाविति ह्यतत् तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ?' एवं परचेतोवृत्तीना दुरन्वयत्वाद् उपदेष्टरपि यथाव स्थित विवक्षया ग्रहणासंभवान्निश्चयार्थमजानाना म्लेच्छवदपरोक्तमनुभाषन्त एव । ..... 'अतोऽज्ञानमेव श्रेय इति । ३. (क) चूणि, पृष्ठ ३४ : समणा समणा एव । (ख) वृत्ति, पृष्ठ ३५ : श्रमणाः परिव्राजकविशेषाः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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