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________________ अध्ययन १: टिप्पण८४-८६ सूयगडो १ ४८ भी होता था, ऐसा प्राचीन उल्लेख प्राप्त होता है। अतः वृत्तिकार का अर्थ भी संगत है। श्लोक ४३: ५४. अज्ञानी (पूर्ण ज्ञान से शून्य) (अण्णाणिया) अज्ञानिक का अर्थ है-पूर्ण ज्ञान से शून्य ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-सम्यग् ज्ञान से रहित किया है।' श्लोक ४४: ८५. विमर्श (वीमंसा) चूणिकार ने संशय, सन्देह, वितर्क, ऊह और विमर्श को पर्यायवाची माना है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-पर्यालोचन तथा मीमांसा ।' श्लोक ४५ ८६. श्लोक ४५ प्रस्तुत श्लोक में दिग्मूढ पथदर्शक के द्वारा होने वाले अपाय का निर्देश किया गया है। किसी गहन वन में एक पथिक पथभ्रष्ट हो गया। वह दिग्भ्रान्त होता हुआ पथ की टोह में घूम रहा था। इतने में ही उसे दूसरा पथिक दिखाई दिया। उसने पूछा'भाई ! पाटलिपुत्र नगर किस दिशा की ओर है ? उस पथिक ने कहा-चलो, मैं तुम्हें वहां ले चलता हूं।' दोनों साथ हो गए। वह भी पाटलीपुत्र का मार्ग नहीं जानता था। दोनों जंगल में ही भटकते रहे। रास्ते में पर्वत, पत्थर, नदियां, गुफाएं, वृक्ष, गुल्म, लता, वितान, जंगल आदि भयंकर स्थान आए। वहां वे दोनों कष्ट पाते हुए भी गन्तव्य तक नहीं पहुंच पाए। किसी सार्थवाह ने स्कंधावार से एक मार्गदर्शक साथ ले लिया। वह स्वयं दिग्भ्रान्त था। वह दूसरी ही दिशा में चल पड़ा। उसके पीछे-पीछे सारा सार्थ चलता गया। सार्थ के बीच में चलने वाले मनुष्य तथा अन्त में चलने वाले मनुष्य मार्ग के ज्ञाता थे। परन्तु आगे-आगे चलने वाला मार्ग से अजान था। वे सब उस दिग्भ्रान्त नेता का अनुगमन कर कष्ट पाते रहे। १.(क) निशीथमाष्य गाथा, ४४२० : णिग्गंथ सक्क तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा।। चूणि-णिग्गंथा साधू खमणा वा सक्का रत्तपडा, तावसा वणवासिओ, गेरआ परिवायया, आजीवगा गोसालसिस्सा पंडर भिक्खुआ वि भणति । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७३१-३३ : निग्गंथ सक्कं तावस, गेल्य आजीव पंचहा समणा । तम्मि निग्गंथा ते जे, जिणसासण भवा मुणिणो॥ सक्का य सुगय सीसा, जे जडिला ते उ तावसा गीया । जे धाउरवत्था तिवंडिणो गेरूया ते उ॥ जे गोसालगमयमणुसरंति, भन्नति ते उ आजीवा । समणत्तणेण भुवणे, पंचवि पत्ता पसिद्धि मिमे ॥ २. चूणि, पृष्ठ ३५ : अत्रिकालाभिज्ञा इव न सद्भावतो वदन्ति । ३. वृत्ति, पत्र ३५ : अज्ञानिकाः सम्यग्ज्ञानरहिताः। ४. चूणि, पृष्ठ ३५ : संशयः संदेहो वितर्कः ऊहा वीमसेत्यनान्तरम् । ५. वृत्ति, पत्र ३६ : विमर्शः पर्यालोचनात्मको मीमांसा वा-मातुं परिच्छेत्तुमिच्छा। ६. चूणि, पृष्ठ ३५। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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