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________________ सूयगडो १ ८७. घोर ( तिव्वं ) तीव्र के दो अर्थ हैं- अत्यन्त, असह्य ין re ८८. जंगल में (सोयं) इसके तीन अर्थ , खोत (भयद्वार), जंगल, शोक पर्वत, चट्टानें, नदियां, कन्दरा, तथा वृक्ष, गुल्म और लताओं के झुरमुट तथा जंगल - ये भय पैदा करने वाले होते हैं। अतः ये श्रोत हैं ।' श्लोक ४६ : अध्ययन १ : टिप्पण ८७-२ ८६. दूर मार्ग में चला जाता है ( दूरमद्धाण गच्छई ) इसका तात्पर्य है - विवक्षित मार्ग से दूर चला जाता है। एक अंधा मनुष्य दूसरे अंधे के पास आकर बोला- 'चलो, मैं तुम्हें उस गांव या नगर में ले चलता हूं जहां तुम जाना चाहते हो ।' वह अंधा उसके साथ चल पड़ा । ले जाने वाला भी अंधा और जाने वाला भी अंधा । ले जाने वाला नहीं जानता कि उसे कहां ठहरना है, कहां चलना है। मार्ग का यह अपरिमाण ही मार्ग से दूर भटकना है । * ६०. उत्पथ में चला जाता है (आवज्जे उप्पहं जंतू) इस प्रकार दोनों अंधे अपने पादस्पर्श से मार्ग को पहचानते हुए क्षण भर सही मार्ग पर चलते हैं, फिर उत्पथ में चले जाते हैं । उस उत्पथ पर चलते हुए प्रपात, कांटे, सर्प, हिंस्र पशुओं से वे विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। * श्लोक ४७ : ११. मोक्षार्थी (गियागट्ठी) पूर्णिकार ने 'गिवायी' का संस्कृत प्रतिकर 'नियाकार्य' किया है। तात्पर्यार्थ में इसके दो किए हैं-नियत- मोक्ष और नियत - नित्य ।" वृतिकार ने 'निमान' का अर्थ मोक्ष या सद्धमं किया है। नियाग का नियत शब्द से सीधा संबंध नहीं है। इसका संबंध 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'पन्' धातु से संगत लगता है। ६२. अधर्म के मार्ग पर चलते हैं (अहम्ममावज्जे) कुछ लोग धर्म की आराधना के लिए दीक्षा स्वीकार करते हैं। तथाकथित मान्यता अथवा जीवन यात्रा की कठिनाइयों के कारण वे आरंभ में प्रवृत्त रहते हैं। इस प्रकार वे धर्म के लिए जीवन-यापन करते हुए भी अधर्म में चले जाते हैं। चूर्णिकार ने एक महत्त्वपूर्ण बात का उल्लेख किया है कि आजीवक श्रमण बहुत कठोर तपश्चर्या करते थे, किन्तु वे भी अधर्मानुबंधी धर्म का आचरण करने के कारण धर्म से अधर्म की ओर चले जाते थे।" । Jain Education International १. (क) णि, पृष्ठ २५ (ख) वृत्ति, पत्र ३६ : तीव्रम् असह्यम् । २. गि, पृष्ठ ३५ पर्यंत-म-सरित् कन्दरा वृक्ष गुल्मता-वितान-व्हनं भवन्ति तेनेति श्रोतं भवद्वारमित्यर्थः । : ३. वही, पृष्ठ ३५: जधा कोई अंधो अद्धाणे अद्धाणद्वाणे वा किचि अन्धमेव समेत्य ब्रवीति — अहं ते अभिदमितं गानं नगरं वा गेमि त्ति तेण सध पट्टितो।' नासौ जानाति यत्र वस्तव्यं यातव्यं वा इत्यतस्तस्य तदपरिमाणमेव अध्वानमित्यतो दूराध्वानम् । ४. वही, पृष्ठ ३५ स एवं पधेणं पत्थितो वि क्षणान्तरं पादस्पर्शेन गत्वा उत्पथमापद्यते यत्र विनाशं प्राप्नुते प्रपात कण्टका-हिश्वापदादिभ्यः । ५. वही, पृष्ठ ३६ : नियतो नाम मोक्षः, नियतो नित्य इत्यर्थः, नियाकेन यस्यार्थः स भवति निमाकार्थः । ६. वृत्ति, पत्र ३६ नियागो मोक्ष: सद्धर्मो वा । ७ चूर्णि पृष्ठ ३६ : अधर्ममापद्यन्ते यथाशक्त्या आरम्भप्रवृत्ता धर्मायोत्थिता अधर्ममेव आपद्यन्ते । येऽपि च कष्टतपः प्रवृत्ता आजीविकावयपि धर्म अधर्मानुबन्धिनं प्राप्य पुनरपि गोशालवत् संसारायेव भवन्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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