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________________ सूयगडो १ पंडित वीर्य मादि सपर्यवसित ही होता है ' ३६८ ६. श्लोक ३ : प्रस्तुत आगम में कर्म और अकर्म का प्रयोग कई दृष्टियों से हुआ है। कर्म का एक अर्थ है-क्रिया और दूसरा अर्थ हैक्रिया से आकृष्ट होने वाले सूक्ष्म परमाणुओं का स्कंध । इसी आशय से १२।१५ में कहा गया है-बाल मनुष्य कर्म से कर्म को क्षीण नहीं करते, किन्तु धीर मनुष्य अकर्म से कर्म को क्षीण करते हैं ।" प्रस्तुत अध्ययन के नौवें श्लोक में बतलाया गया है- बाल मनुष्यों के सकर्मवीर्य होता है और पण्डित मनुष्यों के अकर्मवीर्य होता है।' चूर्णिकार सकर्मवीर्य और बालवीर्य को एकार्थक तथा अकर्मवीर्य और पंडितवीर्य को एकार्थक मानते हैं। अकर्म में भी वीर्य है, इसलिए उसका अर्थ निष्क्रियता या अकर्मण्यता नहीं है । अध्यात्म की भाषा में प्रमादयुक्त प्रवृत्ति को कर्म तथा अप्रमादयुक्त प्रवृत्ति को अकर्म कहा जाता है । भगवान् महावीर से पूछा गया - 'भंते ! जीव आत्मारंभ, परारंभ या उभयारंभ होता है या अणारंभ ?' भगवान् ने उत्तर दिया- 'अप्रमत संयती न आत्मारंभ होता है, न परारंभ होता है, न उभयारंभ होता है किन्तु अनारंभ होता है। प्रमत्त संयती अशुभ योग की अपेक्षा आत्मारंभ और परारंभ होता है, अनारम्भ नहीं होता । शुभयोग की अपेक्षा वह आत्मारंभ और परारंभ नहीं होता, किन्तु अनारंभ होता है ।" अध्ययन ८ टिप्पण ६-७ यहां आरम्भ का अर्थ प्रवृत्ति, कर्म या हिंसा है और अनारंभ का अर्थ अप्रवृत्ति, अकर्म या अहिंसा है। इससे स्पष्ट है कि अहिंसात्मक प्रवृत्ति अकर्म और हिंसात्मक प्रवृत्ति सकर्म है। इसलिए सूत्रकार ने प्रभाव को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। ७. शस्त्र ( या शास्त्र ) ( सत्यं) चूर्णि में कहा गया है-- जो कषाय से अप्रमत होता है वही अकर्मवीर होता है । उसी का वीर्य अकर्मवीर्य कहलाता है । प्रश्न होता है अकर्म और बीर्य दोनों विरोधी है, फिर एक साथ कैसे ? जिस भीर्य से कर्म का बंध नहीं होता और जो वीर्य कर्म के उदय से निष्पन्न नहीं होता तथा जिससे कर्म का क्षय होता है, वह वीर्य अकर्मवीर्य कहलाता है । " श्लोक ४ : इसके दो संस्कृत पर्याय होते हैं—-शस्त्र और शास्त्र । , ये दोनों अनेक प्रकार के हैं। प्रस्तुत प्रसंग में वृतिकार ने धनुर्वेद आयुर्वेद, दंडनीति, चाणक्यनीति आदि शास्त्रों को सोदाहरण समझाया है । Jain Education International धनुर्वेद में यह सिखाया जाता है कि बाण चलाते समय किस प्रकार आलीढ और प्रत्यालीढ होकर रहना चाहिए। जिसे मारना हो उसे मुट्ठी के छिद्र में से देखे । मुट्ठी के छिद्र में अपनी दृष्टि स्थिर कर बाण छोड़े । इस प्रकार बाण चलाने पर यदि १. वृत्ति, पत्र १६८ : तब्भावादेसओ वावी ति तस्य- बालवीर्यस्य कर्मणश्च पण्डितवीर्यस्य वा भावः - सत्ता स तद्भावस्तेनाऽऽदेशोव्यपदेशः ततः, तद्यथा बालवीर्यमभध्यानामनाविपर्यवसितं मन्यानामनादिपर्ववसितं यासादिपर्यवसितं येति पण्डितयं तु साविपर्यवसितमेवेति । २. सूयगडो, १।१२।१५ ण कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खर्वेति धीरा । ३. सूयगडो, १८६ एतं सकम्मविरियं बालागं तु पवेइयं । एत्तो अकम्मविरियं पंडियाणं सुणेह मे ॥ ४. चूर्ण, पृ० १६८ : सकर्मवोरियं ति वा वालवोरियं ति वा एगठ्ठे । अकम्मवीरियं ति वा पंडितवोरियं ति वा एगट्ठ ति ॥ ५. भगवई, १०३३, ३४ : जीवा णं मंते ! कि आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? आणारंभा ? गोयमा ! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा । तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा नो परारंभा नो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोग पड़च्च नो आयारंभा, नो परारंभा, नो समारंभा, अगारंमा अशुभ जो पहुच आधारंभा वि परारंभा वि तदुभारंभा विनो प्रारंभा ६. सूयगडो, ८ १०, चूर्णि पृ० १६५ : कसायअप्पमत्तो वा स अकर्मवीरः एवं चेव अकम्मवोरियं वुच्चति । कथं अकम्मवोरियं ? यतस्तेन कर्म न बध्यते, न च तत् कर्मोदयनिध्यन्नम् येन कर्म करोति तेन कर्मवीर्यवान्। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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