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________________ सूयगडो १ ३६६ प्रध्ययन ८: टिप्पण ८-१० अपना शिर न हिले तो लक्ष्य वींध लिया जाता है। आयुर्वेद का कथन है कि क्षय रोग से ग्रस्त रोगी को लावक पक्षी का रस विधिपूर्वक दिया जाए और उसको अभयारिष्ट नामक मद्य विशेष का सेवन कराया जाए। दंडनीति सिखाती है कि चोर आदि को अमुक प्रकार से शूली पर चढ़ाना चाहिए, पुरुष का शिरच्छेद इस प्रकार करना चाहिए। चाणक्य नीति शास्त्र अर्थोपार्जन के लिए दूसरों को टगने की अनेक विधियों का प्रतिपादन करता है।' चूणि का अभिमत है कि कुछ लोग यह सीखते हैं कि अर्थी और प्रत्यर्थी को इस प्रकार दंड देना चाहिए । अपराधी और निरपराधी को उसकी आंख और आकार से जान लेना चाहिए । अमुक अपराध में यह दंड होगा, जैसे- हाथ काटना, मृत्यु दण्ड आदि देना। ८. बाधा पहुंचाने वाले (विहेडिणो) चूणि में इसका अर्थ है-बाधा पहुंचाने वाले।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-विविध प्रकार से बाधक ऋग् संस्थानीय मंत्र किया है।' ६.कुछ लोग..." मंत्रों का अध्ययन करते हैं (एगे मंते अहिज्जते) जो पुरुष-देवता से अधिष्ठित होता है उसे 'मंत्र' और जो स्त्री देवता से अधिष्ठित होता है उसे 'विद्या' कहा जाता है । अथवा मंत्र वह होता है जिसके लिए कोई साधना नहीं करनी पड़ती। विद्या के लिए साधना अपेक्षित होती है। मंत्र और विद्या के पांच-पांच प्रकार होते हैं-पार्थिव, वारुण, आग्नेय, वायव्य और मिश्र । मिश्र वह होता है जिसमें दो या तीन देवता अधिष्ठित होते हैं अथवा जिसमें विद्या और मंत्र-दोनों का मिश्रण होता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार का अभिमत है कि कुछेक व्यक्ति अश्वमेध, पुरुषमेध और सर्वमेध यज्ञों के लिए अथर्ववेद के मंत्रों का अध्ययन करते हैं। श्लोक ५: १०. मायवी मनुष्य माया का प्रयोग कर (माइणो कट्ट मायाओ) __ मनुष्य दूसरों को ठगने के लिए चाणक्य नीति, कौटलीय अर्थशास्त्र, धनुशास्त्र आदि शास्त्रों का अध्ययन करते हैं । वणिक् १ वृत्ति, पत्र १६६ : शस्त्रं-खङ्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमईकारि ......तथाहि-तत्रोपदिश्यते एवंविध मालीढप्रत्यालीढादिभिर्जीवे व्यापादयितव्ये स्थान विधेग,तदुक्तम्मुष्टिनाऽऽच्छादयेल्लक्ष्यं, मुष्टौ दृष्टि निवेश येत् । हतं लक्ष्यां विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते ॥१॥ -तथा एवं लावकरसः क्षयिणे देयोऽभयारिष्टाख्यो मद्यविशेषश्चेति, तथा एवं चौरादेः शूलारोपणादिको दण्डो विधेयः तथा चाणक्याभिप्रायेण परो वञ्चयितव्योऽर्थोपादानार्थं तथा कामशास्त्रादिकं चोद्यमेनाशुभाध्यवसायिनोऽधीयते, तदेवं शस्त्रस्य धनुर्वे दादेः शास्त्रस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्वं बालवीर्यम् । २. चणि, पृष्ठ १६६ : एवं चार्थी प्रत्यर्थी वा दण्डयितव्यः, नेत्रागा (? का) रादिभिश्च कारी अकारी च ज्ञातव्यः, अमुकापराधे चायं दण्डो हस्तच्छेद-मारणेत्यादि । ३. चूणि, पृ० १६६ : विहेडणं विबाधनं इत्यर्थः । ४. वत्ति, पत्र १६६ : विविधम् अनेकप्रकारं हेठकान् बाधकान् ऋक्संस्थानीयान् मन्त्रान पठन्तीति । ५. सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ६१, चूणि पृ० १६५ : तत्थ विज्जा इत्थी, मंलो पुरिसो। अधवा विज्जा ससाधणा, मंतो असाधणो। एक्केक्कं पंचविधं पार्थिवं वारुण आग्नेयं वायग्वं मिश्रमिति । तत्थ मिस्सं जं विण्ह तिह वा देवताणं, अधवा विज्जाए मंतेण य, एताकि अधिदेवगाणि । ६. (क) चूणि, पृ० १६६ : अस्त्रमते आभिचारुके अथर्वणे हृदयोण्डिकादीनि च अश्वमेधं सर्वमेव पुरुष मेधादि च मन्त्रानधीयते । (ख) वत्ति, पृ० १६६ : एके केचन पापोदयात् मन्त्रानभिचारकाना (ते)थर्वणानश्वमेधपुरुषमेधसर्वमेधादियागार्थमधीयन्ते । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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