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सूयगडो १
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अध्ययन ८: टिप्पण ११-१५
लोग रिश्वत, वंचना आदि के द्वारा धन कमाने की कला सीख जाते हैं । वे मायावी मनुष्य अपनी सीखी हुई माया से अर्थ का उपार्जन करते हैं और अभिलषित सावध कार्यों को संपन्न करते हैं।' ११. कामभोगों (धन) को (कामभोगे)
चूणिकार ने अर्थ को ही 'कामभोग' माना है। कामभोग कार्य है और अर्थ कारण । कारण में कार्य का उपचार कर यह अर्थ ग्रहण किया है। १२. प्राणियों का हनन करते हैं (हंता छेत्ता......)
मनुष्य धन का उपार्जन करने के लिए प्राणियों को मारता है, ग्राम-वध करता है, हरिणों की पूंछे काटता है, हाथियों के दांत उखाड़ता है।
श्लोक ६ : १३. (मणसा... . . . . . 'अंतसो)
मन, वचन, और काय-ये तीन योग हैं-कर्मवीर्य हैं । विकास-क्रम की दृष्टि से पहले काय योग, फिर वचन योग और फिर मनोयोग होता है। प्रवृत्ति की दृष्टि से पहले मनोयोग-मानसिक चिन्तन होता है, फिर वचन योग और अन्त में काय योग होता है।' प्रस्तुत श्लोक में प्रवृत्ति का क्रम सूचित किया गया है । १४. स्वयं या दूसरे से (आरतो परतो)
चूणिकार ने 'आरतो' का अर्थ 'स्वयं' और परतो का अर्थ 'पर' किया है।'
श्लोक ७:
१५. (वेराई कुव्वइ.....)
चुणिकार का आशय है कि एक व्यक्ति दूसरे को मारता है, बांधता है, दंडित करता है, देश-निकाला देता है, वह अनेक व्यक्तियों के साथ वैर बांधता है । जैसे चोर, पारदारिक, व्याजखोर आदि व्यक्ति अनेक व्यक्तियों से वैर का अनुबंध करते हैं।
वृत्तिकार का अभिमत है कि जीवों का उपमर्दन करने वाला वैरी होती है। वह सैंकड़ों जन्मों तक चलने वाले वैर का बंध करता है। उस एक वैर के कारण वह अनेक दूसरे वैरों से सम्बन्धित होता है और उसकी वैर परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलने लगती है।
१.णि, पृ० १६७: तेण चाणक्क-कोडिल्लं ईसस्थादी मायाओ अधिज्जंति जधा परो वंचेतव्यो। तहा वणियगादिणो य उक्कंचण
वंचणादीहिं अत्थं समज्जिणंति । लोभो तस्थेव ओतरेति, माणो वि। एवं मायिणो मायाहि अत्थं उवज्जिणंति,
यथेष्टानि सावधकार्याणि साधयन्ति । २. चूणि, पृ० १६७ : कारणे कार्गवदुपचारः अर्थ एव काममोगाः । ३ चूणि, पृ० १६७ : अर्थोपार्जनपरो निर्दय..." हंता गामादि, छेत्ता मियपृच्छादि, पकत्तिया हत्थिदंतादि हत्यादि वा। ४. चूणि, पृ० १६६ : पढम मणसा, पच्छा वायाए, अंतकाले कारण। ५. चूणि, पृ० १६७ : आरतो सयं, परतो अण्णेण । ६. चूणि, पृ० १६७ : स वैराणि कुरुते वैरी । ततो अण्णे मारेति, अण्णे बंधति, अण्णे दंडेत्ति, अण्णे णिग्विसए आणवेत्ति, चोर-पारदा
रिय-चोपगादि बहुजणं वेरियं करेति । ७. वृत्ति, पत्र, १७० : वैरमस्यास्तीति वैरी, स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, ततोऽपि च वैरादपरररनुरज्यते,
संबध्यते, वैरपरम्परानुषङ्गी भवतीत्यर्थः ।
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