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________________ सूयगडो । ३७१ अध्ययन ८: टिप्पण १६-२० श्लोक : १६. विषय ओर कषाय करने वाले मनुष्य (अत्तदुक्कडकारिणो) 'अत्त' के संस्कृतरूप दो बनते हैं-आत्म और आर्त्त । आत्म का अर्थ है-स्व और आर्त का अर्थ है-पीड़ित । प्रस्तुत प्रसंग में 'आर्त' शब्द ही उपयुक्त लगता है । इस शब्द का अर्थ होगा-विषय और कषाय से आर्त्त होकर हिंसा आदि दुष्कृत करने वाले मनुष्य । वृत्तिकार ने 'आत्मदुष्कृतकारिणः' मानकर, इसका अर्थ- स्वयं पाप करने वाला-किया है।' १७. संसार (जन्म-मरण) (संपरायं) जैन आगमों में यह शब्द बहु प्रयुक्त है । इसका अर्थ है-संसार, जन्म-मरण । इसका एक सैद्धान्तिक अर्थ भी है। कर्म दो प्रकार का होता है- ईर्यापथ और सांपरायिक। यहां संपराय का अर्थ हैबादर कषाय । उनसे बंधने वाला कर्म सांपरायिक कहलाता है । वृत्तिकार ने इसी अर्थ को मुख्य मानकर व्याख्या की है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ संसार दिया है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका 'संसार' अर्थ ही अधिक उपयुक्त लगता है। श्लोक १० १८. वीतराग की भांति आचरण करने वाला (दविए) 'द्रव्यं च भव्ये'-पाणिनी के इस कथन से द्रव्य का अर्थ है-भव्य प्राणी अर्थात् मुक्तिगमन योग्य प्राणी।' चणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अकषायी वीतराग अथवा वीतराग जैसा ।' प्रश्न होता है कि क्या सराग मनुष्य अकषायी हो सकता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि जो कषायों का निग्रह करता है, वह भी अकषायी के तुल्य ही है।' १९. कषाय के बंधन से मुक्त (बंधणुम्मुक्के) कषाय कर्म स्थिति के हेतुभूत होते हैं, अतः ये ही यथार्थ में बंधन हैं। कहा भी है-बंधट्टिई कसायवसा-बंधन की स्थिति कषाय के अधीन है । अत: जो कषाय से मुक्त है वही बन्धन से उन्मुक्त है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ मुक्त सदृश किया है।' २०. प्रमाद या हिंसा ..होने वाला मनुष्य (छिण्णबंधणे) ___ हिंसा, प्रमाद, राग-द्वेष ये बंधन के हेतु हैं । १. चूणि, पृ० १६८ : आर्ता नाम विषय-कषायार्ताः । दुक्कडकारिणो दुक्कडाणि हिंसादीणि पावाणि कुर्वन्तीति दुक्कडकारिणः । २. वृत्ति, पत्र १७० : आत्मदुष्कृतकारिणः स्वपापविधायिनः। ३. वृत्ति, पत्र १७० : द्विविधं कर्म-ईर्यापथं साम्परायिकं च, तत्र सम्पराया-बादरकषायास्तेभ्य आगतं साम्परायिकम् । ४. चूणि, पृ० १६८ : संपरागः संसारः । ५. वृत्ति, पत्र १७० : द्रव्यो भव्यो मुक्तिगमनयोग्य: 'द्रव्यां च भव्यं' इति वचनात् । ६. चूणि, पृ० १६८ : राग-दोसविमुक्को दविओ, बीतराग इत्यर्थः, अधया वीतराग इव वीतरागः । ७. वृत्ति, पत्र १७० : द्रव्यः रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यभूतोऽकषायीत्यर्थः, यदि वा वीतराग इव वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः । तथा चोक्तम कि सक्का वोत्तुं जे सरागधम्ममि कोइ अकसायी। संतेवि जो कसाए निगिण्हइ सोऽवि तत्तुल्लो ॥१॥ ८. वृत्ति, पत्र १७० : बन्धनात्-कषायात्मकान्मुक्तः, बन्धनोन्मुक्तः, बन्धनत्वं तु कषायाणां कर्मस्थितिहेतुत्वात्, तथा चोक्तम् बंधट्टिई कसायवसा कषायवशात् इति । ९. चूणि, पृ० १६८ : बन्धनेभ्यो मुक्तकल्पः पण्डितवीर्यावरणेभ्यः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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