SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पण: अध्ययन ८ श्लोक २: १. सुव्रत (तीर्थङ्कर) (सुव्वया) चूर्णिकार ने 'सुव्रत' का अर्थ तीर्थङ्कर किया है।' वृत्तिकार ने इसे संबोधन माना है।' २. (कम्ममेव........... अकम्मं वा) कर्मवीर्य-कर्म और क्रिया-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आगम में कर्म के अनेक पर्याववाची शब्द मिलते हैं, जैसे-उत्थान, कर्म, बल और वीर्य । इसका दूसरा अर्थ है-कर्मों के उदय से निष्पन्न शक्ति को कर्मवीर्य कहा जाता है । वह बालवीर्य है।' अकर्मवीर्य-वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न सहज शक्ति को अकर्मवीर्य कहा जाता है। इसमें कर्म-बंधन नहीं होता और न यह कर्म-बंध में हेतुभूत ही होता है । यह पंडितवीर्य है।' ३. (एतेहिं दोहि ठाणेहि जेहिं.........) यहां तृतीया विभक्ति के कारण व्याख्या में जटिलता उत्पन्न हुई है। चूणि में तृतीयान्त पाठ नहीं है। वहां 'एते एव दुवे ठाणा-ऐसा पाठ उपलब्ध है। इस पाठ से व्याख्या की जटिलता समाप्त हो जाती है । उत्तराध्ययन ५/२ में भी इसका संवादी पाठ उपलब्ध होता है-'संतिमेव दुवे ठाणा ।' श्लोक ४. (पमायं कम्ममाहंसु अप्पमाय तहावरं) कर्मवीर्य को प्रमाद और अकर्मवीर्य को अप्रमाद कहा गया है। यह कथन कारण में कार्य का उपचार कर किया गया है। ५. (तब्भावादेसओ... पंडियमेव वा) ___ इसका अर्थ है-तद् भाव की अपेक्षा से। 'भाव' का अर्थ है-होने से और 'आदेश' का अर्थ है-कथन, व्यपदेश । अर्थात् इन दोनों चरणों (३, ४) का अर्थ होगा-कर्मवीर्य के तद्भाव की अपेक्षा से (प्रमाद की अपेक्षा से) मनुष्य 'बाल' और अकर्मवीर्य के तद्भाव की अपेक्षा से (अप्रमाद की अपेक्षा से) वह 'पंडित' कहलाता है। अभव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि-अपर्यवसित होता है और भव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि-सपर्यवसित और सादिसपर्यवसित-दोनों प्रकार का होता है। १. चूर्णि, पृ० १६६ : सुव्रताः तीर्थकराः । २. वृत्ति, पत्र १६८ : हे सुव्रता!। ३. (क) चूणि, पृ० १६६ : क्रिया कर्मेत्यनन्तरम् । क्रिया हि वीर्यम्.. ....... तरसेगट्टिया-उट्ठाणं ति वा कम्मं ति वा बलं ति वा वीरिगं ति वा एगळं............अधवा यदिदमष्ट प्रकारं कर्म तद्धि औदयिकभावनिष्पन्नं कर्मत्यपविश्यते, औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव बालवीरिगं वुच्चति । (ख) वृत्ति, पत्र १६८ । ४. चूर्णि, पृ० १६६ : अकर्मवीर्ग तत्, तद्धि कर्मक्षयनिष्पन्नम्, न वा कर्म बध्यते, न वा कर्मणि हेतुभूतं भवति । ५. चूणि, पृ० १६६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy