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सूयगडो १
१७. अत्थि वा णत्थि वा पुष्णं ?
अस्थि पुण्णं ति णो वए। अधवा णत्थि पुण्णं ति एवमेयं
महन्मयं ॥
तसथावरा ।
१८. दाणट्टयाय जे पाणा हम्मंति तेसि सारखगडाए अत्थि पुण्णं ति णो वए ॥
१६. जेसि तं उवकपैति अण्णं पाणं तहाविहं । तेसि लाभंतरायं ति तम्हा गस्थि ति णो वए । २०. जे व दाणं पसंसंति वधमिच्छंति पाणिणं । जेवणं पडिसेहति वितिच्छेद करेति ते ॥ २१. दुहओ वि जेण भासंति
अस्थि वा पत्थि वा पुणो । आर्य रयस्स हेच्या णं णिव्वाणं पाउणंति ते ॥
२२. णिवाण-परमा बुढा णक्खत्ताण व चंदमा । तम्हा सया जए दंते निव्वाणं संधए मुणी ॥
पाणाणं किच्चंताणं सकम्मणा । आघाति साधुतं दीवं पतिट्ठेसा पवुच्चई ॥
२३. बुग्भमाणा
२४. आयते सपा दंते छिण्णसोए विरासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाति पपुष्णमणेलिस 11
२५. तमेव
अविजाणता
अबुद्धा बुद्धवादिणो । बुद्धा मो त्तिय मरणंता अंतर ते समाहिए ॥
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अस्ति वा नास्ति वा पुष्यं, अस्ति पुष्यं इति नो वदेत् । अथवा नास्ति पुण्यमिति,
एवमेतद्
महाभयम् ॥
दानार्थ
हन्यन्ते
प्राणाः, त्रसस्थावराः । संरक्षणार्थं,
तेषां
अस्ति पुण्यमिति नो वदेत् ॥
ये
येषां तत् उपकल्पयन्ति, अन्नं पानं तथाविधम् । तेषां लाभान्तराय इति, तस्माद् नास्ति इति नो वदेत् ॥
ये च दानं प्रशंसन्ति, वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् । ये च प्रतिषेधन्ति, वृत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥ द्वे अपि ये न भाषन्ते, अस्ति वा नास्ति वा पुनः । आयं रजसो हित्वा निर्वाण प्राप्नुवन्ति ते ॥
निर्वाण-परमा बुद्धाः, नक्षत्राणामिव चन्द्रमाः । तस्मात् सदा यतो दान्तः, निर्वाणं संदध्यात् मनिः ॥
उद्यमानानां प्राणानां, कृत्यमानानां स्वकर्मणाम् । आख्याति साधुकं द्वीप, प्रतिष्ठेषा प्रोच्यते ॥
आत्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोताः निराश्रवः । यो धर्म मुखमाख्याति, प्रतिपूर्ण मनीवाम्
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तमेव
अभिजानन्तः, बुद्धवादिनः ।
अयुद्धाः
बुद्धाः स्म इति च मन्यमानाः,
अन्तके
ते
समाः ॥
अ० ११ मार्ग श्लोक १७-२५
:
१७. 'पुण्य है या नहीं ? ( इस प्रश्न के उत्तर में ) पुण्य है - यह न कहे । अथवा पुण्य नहीं है (यह भी न कहे ।) क्योंकि ये दोनों महाभय ( दोष के हेतु ) हैं ।
१८. दान के लिए जो त्रस और स्थावर हैं, उनके संरक्षण के लिए 'पुष्प है'
१६. जिनके लिए उस प्रकार का अन्न-पान बनाया जाता है, उन्हें उसकी प्राप्ति में विघ्न होता है, इसलिए 'पुण्य नहीं है' - यह न कहे ।
प्राणी मारे जाते यह न कहे।
२०. जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं । जो उसका प्रतिषेध करते हैं वे उन ( अन्न-पान के अर्थियों) की वृत्ति का छेद करते हैं ।
२१. जो धर्म या पुण्य है या नहीं है कहते वे कर्म के आगमन का निरोध प्राप्त होते हैं । "
वे दोनों नहीं कर निर्वाण को
२२. तीर्थंकरों के निर्वाण परम होता है" जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा ।" इसलिए सदा संयत और जितेन्द्रिय मुनि निर्वाण का संधान करे।"
२३. संसार के प्रवाह में बहते और अपने कर्मों से छिन्न होते हुए प्राणियों के लिए भगवान् ने कल्याणकारी" द्वीप ( या दीप) का प्रतिपादन किया है। इसे प्रतिष्ठा कहा जाता है ।
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२४. सदा मन को संवृत करने वाला जितेन्द्रिय, हिंसा आदि के स्रोतों को छिन्न करने वाला अनाश्रव होकर" प्रतिपूर्ण और अनुपम धर्म का
आख्यान करता है,
२५. उस धर्म को नहीं जानते हुए कुछ अबुद्ध अपने को बुद्ध कहते हैं । अपने आपको बुद्ध मानने वाले वे समाधि से दूर हैं ।'
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