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________________ सूयगडो प्र० ११: मार्ग: श्लोक २६-३४ २६.ते य बीयोदगं चेव तमुहिस्सा य जं कडं। भोच्चा झाणं झियायंति अखेतण्णा असमाहिया ॥ २७. जहा ढंका य कंका य कुलला मग्गुका सिही। मच्छेसणं झियायंति झाणं ते कलुसाधमं॥ २८. एवं तु समणा एगे मिच्छदिट्ठी अणारिया। विसएसणं झियायंति कंका वा कलुसाधमा । २६. सुद्धं मग्गं विराहित्ता इहमेगे उ दुम्मती। उम्मग्गगया दुक्खं घातमेसंति तं तहा॥ ३०. जहा आसाविणि णावं जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागंतुं अंतरा य विसीदति ॥ ३१. एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। सोतं कसिणमावण्णा आगंतारो महन्भयं ॥ ३२. इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदितं। तरे सोयं महाघोरं अत्तत्ताए परिव्वए॥ ३३. विरते गामधम्मेहि जे कई जगई जगा। तेसि अत्तुवमायाए थामं कुव्वं परिवए। ३४. अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए। सव्वमेयं णिराकिच्चा णिव्वाणं संधए मुणी॥ ते च बीजोदकं चव, २६. वे" (सजीव) बीज (धान्य) और जल तथा अपने तमुद्दिश्य च यत् कृतम् । उद्देश्य से जो बनाया गया उसका सेवन करते हैं। भक्त्वा ध्यानं ध्यायन्ति, वे (गुद्ध ध्यान को) नहीं जानते। (उनका अध्यअक्षेत्रज्ञाः असमाहिताः ॥ वसाय मनोज्ञ भोजन आदि में लगा रहने के कारण) वे असमाहित चित्त वाले होते हैं। फिर भी वे ध्यान लगाते हैं। यथा ध्वांक्षाश्च कंकाश्च, २७. जैसे ढंक, कंक", कुरर, मद्गु (जल कौवा) और कुररा मद्गकाः शिखिनः । शिखी मछली की खोज में ध्यान करते हैं। वैसे ही मत्स्यैषणां ध्यायन्ति, वे कलुष और अधम ध्यान करते हैं । ध्यानं ते कलुषाधमम् ।। एवं तु श्रमणाः एके, २८. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण विषय मिथ्यादृष्टयः अनायोः । की एषणा में ध्यान करते हैं जैसे कलुष और अधम विषयषणां ध्यायन्ति, कंक (मछली की खोज में ध्यान करते हैं ।) कंका इव कलुषाधमाः ।। शुद्धं मार्ग विराध्य, २६. यहां कुछ दुर्मति शुद्ध मार्ग की विराधना कर उन्मार्ग इह एके तु दुर्मतयः । में प्रवृत्त हो दुःख और मृत्यु की कामना करते हैं । उन्मार्गगता दुःखं, घातमेषयन्ति तत् तथा ॥ यथा आस्राविणी नावं, ३० जैसे जन्मान्ध व्यक्ति" सच्छिद्र नौका में चढ़कर पार जात्यन्धः आरुह्य । पाना चाहता है किन्तु वह बीच में ही डूब जाता इच्छति पारमागन्तुं, अन्तरा च विषीदति ॥ एवं तु श्रमणाः एके, ३१. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संपूर्ण मिथ्यावृष्टयः अनार्याः । स्रोत (आस्रव) में पड़कर महाभय को प्राप्त होते स्रोतः कृत्स्नमापन्नाः, आगन्तारो महाभयम् ।। इमं च धर्म आदाय, ३२. मुनि काश्यप (भगवान् महावीर) के द्वारा निरूपित काश्यपेन प्रवेदितम् । इस धर्म को स्वीकार कर महाघोर स्रोत को तर तरेत् स्रोतो महाघोरं, जाए और आत्मदृष्टि से परिव्रजन करे । आत्मतया परिव्रजेत् ॥ विरतो ग्राम्यधर्मेभ्यः. ३३. वह ग्राम्य-धर्मों (शब्द आदि विषयों) से विरत ये केचित जगत्यां 'जगा' । हो, जगत् में जो कोई जीव हैं," उन्हें अपनी आत्मा तेषां आत्मोपमया, के समान जानकर, (संयम में) पराक्रम करता हुआ स्थाम कुर्वन् परिव्रजेत् ।। परिव्रजन करे। अतिमानं च मायां च, तं परिज्ञाय पंडितः । सर्वमेतद् निराकृत्य, निर्वाणं संदध्यात मनिः॥ ३४. पंडित मुनि अतिमान और अतिमाया को जाने और उन सबका निराकरण कर निर्वाण का संधान करे।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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