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सूयगडो १
३५. संधए साहुधम्मं च पावधम्मं णिराकरे । उपधाणवीरिए भिक्खू कोहं माणं ण पत्थए ।
३६. जे य बुद्धा अतिक्कंता जे य बुद्धा अणागया । संती तेसि पड्डाणं भूयाणं जगई जहा ॥
३७. अह णं वतमावण्णं फासा उच्चावया फुसे । ण तेहि विणिज्जा वातेण व महागिरी ॥
३८. संबुडे से
महापणे
धीरे दत्तेसणं चरे । गिस्य डे कालमार्कले एवं केवलिणो मतं ॥
- ति बेमि ॥
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૪૬.
संदध्यात् साधुधर्म च पापधर्मं निराकुर्यात | उपधानवीर्यः भिक्षु, क्रोधं मानं न प्रार्थयेत् ॥
ये च बुद्धाः अतिक्रान्ताः, ये च बुद्धाः अनागताः । शान्तिस्तेषां प्रतिष्ठान, भूतानां जगती यथा ।।
अथ तं व्रतमापन्नं, स्पर्शा उच्चावचाः स्पृशेयुः ।
न
वातेनेव
विनिहन्येत, महागिरिः ।।
संवृतः स महाप्राज्ञः, धीरो दत्तंषणां चरेत् । निवृतः कालमाकांक्षेत् एवं केवलिनो मतम् ॥
- इति ब्रवीमि ॥
अ० ११ : मार्ग : श्लोक ३५-३८
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३५. तप में पराक्रम करने वाला भिक्षु साधु-धर्म का संधान" और पाप-धर्म का निराकरण करे । क्रोध और मान की इच्छा न करे ।
३६. जो" बुद्ध (तीर्थंकर) हो उन सबका आधार है पृथ्वी । १३
चुके हैं और जो बुद्ध होंगे, शान्ति, जैसे जीवों का
३७. व्रत पर आरूढ पुरुष को उच्चावच स्पर्श (कष्ट) घेर लेते हैं । वह उनसे हृत प्रहत न हो जैसे वायु से महापर्वत ।
३८. संवृत, महाप्राज्ञ, धीर मुनि दत्त की एषणा करे । वह शान्त रहता हुआ काल की आकांक्षा ( प्रतीक्षा )
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करे" - यह केवली का मत है । "
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— मैं ऐसा कहता हूं ।
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