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सूयगडो १
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अध्ययन ४: टिप्पण १३६-१३८ क्रिया को कायिकरूप से करने की बात ही प्राप्त नहीं होती।'
श्लोक ५२ : १३६. शुद्ध अन्तःकरण वाला (सुविसुद्धलेसे)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ-शुक्ललेश्या वाला मुनि किया है।' वृत्तिकार ने लेश्या का अर्थ-अन्तःकरण की वृत्ति किया है। इसका अर्थ होगा-शुद्ध अन्तःकरण वाला भिक्षु ।' १३७. परक्रिया न करे-स्त्री के पैर आदि न दबाए (परकिरियं)
चूणिकार ने 'परक्रिया' शब्द के द्वारा स्त्री के पैरों का आमार्जन-प्रमार्जन- इस आलापक का निर्देश किया है। परक्रिया का पूरा प्रकरण आयारचूला के तेरहवें अध्ययन में उपलब्ध है।
श्लोक ५३ : १३८. शुद्ध अन्तःकरण वाला (अज्झत्थविसुद्धं)
अज्झत्थ का अर्थ है-संकल। जो मुनि राग-द्वेष से विमुक्त होता है, मान और अपमान तथा सुख और दुःख में सम होता है, जो स्व और पर को तुल्य मानता है, वह अध्यात्म-विशुद्ध होता है।"
वृत्तिकार ने विशुद्ध अन्तःकरण वाले को अध्यात्म-विशुद्ध माना है।'
१. चूर्णि, पृ० १२० : णो सयपाणिणा णिलेज ति हत्थकम्मं न कुर्यात, निलंजनं नाम करणं, अथवा स्वेन पाणिना त प्रदेशमपि न
लीयते जहा पाणिसंहरिसो वि न स्यादिति, कुतस्तहि करणम् । २ चूणि, पृ० १२० : सुविसुद्धलेस्से नाम सुक्कलेस्से । ३. वृत्ति, पत्र १२० : सुष्ठु - विशेषेण शुद्धा-स्त्रीसम्पर्कपरिहाररूपतया निष्कलङ्का लेश्या-अन्तःकरणवत्तिर्यस्य स तथा स एवम्भूतः । ४. चूणि, पृ० १२० : परकिरिया नाम नो इत्थीपाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा संवाहण ति जाव छत्तमउडं ति । ५. चूणि, पृ० १२१ : अज्झत्थविसुद्धे, अज्झत्थं णाम संकप्पातो विसुद्धं, संकप्पविसुद्धं राग-द्वेषविप्रमुक्तम्, समो माना-ऽवमानेषु समदुःखसुखं पश्यति आत्मानं च परं च मन्यते तुल्यम् । तथा चोक्तम्
कस्य माता पिता चैव ? स्वजनो वा कस्य जायते ? ॥
न तेन कल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ।। ६. वृत्ति, पत्र १२० : अध्यात्मविशुद्धः सुविशुद्धान्तःकरणः ।
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