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सूयगडो १
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अध्ययन ४: टिप्पण १३३-१३५
'भालस्यं मैथुनं निद्रा, सेवमानस्य वर्द्धते।' -आलस्य, मैथुन और निद्रा-ये सेवन करने से बढ़ते रहते हैं।'
वृत्तिकार ने इसका अर्थ रमणियों के संपर्क से उत्पन्न कामभोग किया है।' १३३. कर्मबन्ध कारक (वज्जकरा)
चूणिकार ने 'वज्ज' के चार अर्थ किए हैं-कर्म, वज्र, पाप और चौर्ण ।' वृत्तिकार ने इस शब्द के संस्कृत रूप दो दिए हैं-'अवद्यकराः' और 'वज्रकाराः' । अवद्य का अर्थ पाप है और वज्र का अर्थ है-भारी भरकम वज।'
श्लोक ५१ : १३४. यह जानकर भिक्षु मन का निरोध करे-कामभोग से अपने को बचाए (इइ से अप्पगं निरु भित्ता)
___ कामभोगों से अपने आपको बचाना ही श्रेयस्कर है । इहलोक में भी वही व्यक्ति सुखी होता है जो अपनी कामेच्छा का निरोध करता है, फिर परलोक की तो बात ही क्या ? कहा भी है
'जो मुनि लौकिक व्यापार से मुक्त है, उसके जो सुख होता है वह सुख चक्रवर्ती या इन्द्र के भी नहीं होता।'
'तृण-संस्तारक पर निविष्ट मुनि राग-द्वेष रहित क्षण में जिस मुक्ति-सुख का अनुभव करता है वह चक्रवर्ती को भी उपलब्ध नहीं होता। १३५. (णो इत्थि...णिलिज्जेज्जा)
वृत्तिकार ने 'णिलिज्जेज्जा' क्रिया को दोनों चरणों में प्रयुक्त कर अर्थ किया है। उनके अनुसार तीसरे चरण का अर्थ होगा- मुनि स्त्री और पशु का आश्रय न ले अर्थात् स्त्री और पशु के संवास का परित्याग करे। चौथे चरण का अर्थ होगा-मुनि अपने हाथ से गुप्तांगों का संबाधन न करे। उन्होंने दोनों चरणों का संयुक्त अर्थ इस प्रकार किया है- मुनि स्त्री या पशु आदि को अपने हाथ से न छूए।
चूर्णिकार ने चौथे चरण का अर्थ-हस्त कर्म न करना किया है। उन्होंने "णिलिज्जेज्जा' का अर्थ 'करना' किया है। उनके अनुसार-मुनि अपने हाथ से उस प्रदेश का स्पर्श भी न करे। हस्त-स्पर्श से होने वाली सुखानुभूति के निषेध कर देने से उस १. चूणि, पृ० १२० : तज्जातिया णामा तश्विधजातिगा। चतुविधा कामा , तं जधा सिंगारा १ कलुणा २ रोद्दा ३ बीमच्छा तिरिक्ख जोणियाणं पासंडीणं च ४। एतदुक्तं भवति–बीभच्छवेसानां तेषां बीभच्छा एव कामा, आकारीहि वि समं तं चेब, अथवा तदेव
जनयन्तीति तज्जातिया मैथुनं ह्यासेवते तदिच्छा एव पुनर्जायते। उक्तं हि-आलस्यं मैथुनं निद्रा सेवमानस्य वर्द्धते । २. वृत्ति, पत्र ११६ । यतस्ताभ्यो रमणीभ्यो जातिः--उत्पत्तिर्येषां तेऽमी कामास्तज्जातिका-रमणीसम्पर्कोस्थाः । ३. चूणि पृ० १२० : वज्जमिति कम्म, वज्जं ति वा पातं ति वा चोणं ति वा। ४. वृत्ति, पत्र ११६ : अवयं पापं वज्र वा गुरुत्वावधः पातकत्वेन पापमेव तत्करणशीला अवद्यकरा वज्रकरा वेत्येवम् । ५. चूणि, पृ० १२० : इहलोकेऽपि तावद् णिरुद्धकामेच्छस्स श्रेयो भवति, कुतस्तहि परलोकः? । उक्त हि
नवास्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य । यत् सुखमिहेव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ।
[प्रशमरति आन्हिक १२८] तणसंथारणिवण्णो वि मुणिवरो भग्गराग-मय-दोसो। जं पावति मुत्तिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लभति ॥
[संस्तारक प्रकीर्णक गा० ४८] ६. वृत्ति, पत्र १२० : न स्त्रियं नरकवीथोप्रायां नापि पशु लीयेत आश्रयेत स्त्रीपशुभ्यां सह संवासं परित्यजेत् , 'स्त्रीपशुपण्डकविजिता शय्येतिवचनात्, तथा स्वकीयेन 'पाणिना' हस्तेनावाच्यस्य 'न णिलिज्जेज्ज' ति न सम्बाधनं कुर्यात, यतस्तदपि हस्तसम्बाधनं चारित्रं शबलीकरोति, यदि वा-स्त्रीपश्वादिकं स्वेन पाणिना न स्पृशेविति ।
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