SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगो २२५ अध्ययन ४: टिप्पण १२८-१३२ जो पुरुष स्त्रीवशवर्ती है उसे स्त्रियां निःशंक होकर दास की भांति अनेक कार्यों में नियोजित करती हैं। जैसे जाल में फंसा हुआ मृग परवश होता है, वैसे ही वह पुरुष स्त्री के जाल में फंसकर परवश हो जाता है । वह भोजन आदि करने में भी स्वतंत्र नहीं होता । स्त्रियां उससे क्रीतदास की भांति शौचालय साफ करना आदि अनेक काम करवाती हैं। १२८. पशु की भांति भारवाही (पसुभूए) वह पशु की भांति हो जाता है। पशु कर्त्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से शून्य होता है। उसमें हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने का विवेक नहीं होता। वैसे ही स्त्रीवशवर्ती मनुष्य भी विवेकशून्य होता है। जैसे पशु आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की संज्ञा में ही रत रहता है, वैसे ही वह पुरुष भी कामभोग में ही रत रहता है, इसलिए वह पशुतुल्य होता है।' १२६. अपने आपमें कुछ भी नहीं रहते (ण वा केई) वह पुरुष अपने आप में कुछ भी नहीं रहता। वृत्तिकार ने इसके अनेक विकल्प प्रस्तुत किए हैं१. वह स्त्रीवशवर्ती मनुष्य दास, मृग, प्रेष्य और पशुओं से भी अधम होता है, इसलिए वह कुछ भी नहीं होता। वह सब में अधम होता है, कोई उसकी तुलना नहीं कर सकता, अतः वह अनुपमेय होता है। २. दोनों ओर से भ्रष्ट होने के कारण वह कुछ भी नहीं होता। वह सद् आचरण से शून्य होने के कारण न साधु रहता है और तांबूल आदि का परिभोग न करने तथा लोच आदि करने के कारण न गृहस्थ ही रहता है। ३. इहलोक या परलोक के लिए अनुष्ठान करने वालों में से वह कोई भी नहीं है।' श्लोक ५० : १३०. परिचय का (संथवं) इसका अर्थ है-परिचय । स्त्रियों के साथ उल्लाप, समुल्लाप करना, उन्हें कुछ देना, उनसे कुछ लेना आदि संस्तव के ही प्रकार हैं। १३१. संवास का (संवासं) स्त्रियों के साथ एक घर में या स्त्रियों के निकट रहना 'संवास' है।' १३२. ये कामभोग सेवन करने से बढ़ते हैं (तज्जातिया इमे कामा) चुणिकार ने इसका एक अर्थ यह किया है-उस जाति के । उनके अनुसार काम चार प्रकार के हैं-शृंगार, करुण, रौद्र और बीभत्स । इसका दूसरा अर्थ है-वे काम जिनका सेवन उसी प्रकार के कामों को पैदा करता है, जैसे-मैथुन का सेवन करने से पुनः पुनः मैथुन-सेवन की कामना उत्पन्न होती है। कहा भी है १. वृत्ति, पत्र ११६ : कर्त्तव्याकर्त्तव्यविवेकरहिततया हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यत्वात् पशुभूत इव, यथा हि पशुराहारभयमैथुनपरिग्रहा भिज्ञ एवं केवलम्, एवमसावपि सदनुष्ठानरहितत्वात् पशुकल्पः। २ (क) वृत्ति, पत्र ११६ : स स्त्रीवशगो दासमृगप्रेष्यपशुभ्योऽप्यधमत्वात् न कश्चित्, एतदुक्तं भवति--सर्वाधमत्वात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासावुपमीयते, अथवा—न स कश्चिदिति, उभयभ्रष्टत्वात्, तथाहि-न तावत्प्रवजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितत्वात्, नापि गृहस्थः ताम्बूलादिपरिभोगरहितत्वाल्लोचिकामात्रधारित्वाच्च, यदि वा ऐहिकामुष्मिकानुष्ठायिनां मध्ये न कश्चिदिति । (ख) चूणि, पृ० १२० । ३. चूणि, पृ० १२० : संथवो णाम उल्लाव-समुल्लावा-ऽदाण-ग्गहण-संपयोगादि । ४. चूणि, पृ० १२० : संवासो एगगिहे तदासन्ने वा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ducation Intermational www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy