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________________ सूयगडो १ २२४ अध्ययन ४: टिप्पण १२५-१२७ याचना करने पर वह अपने प्राणों को भी दे देता है। प्रिया के लिए मां की हत्या भी कर डालता हैं। स्त्रियों के द्वारा मांगने पर वह क्या नहीं देता या क्या नहीं करता? (सब कुछ कर डालता है।) वह प्रिया को शौच का पानी ला देता है। उसके पैर पखारता है। उसके श्लेष्म को भी हाथ में ले लेता है। (उसे हाथों में थुकाता है।) श्लोक ४८ : १२५. (राओ वि........"धाई वा) ___ जब वह स्त्री विश्रान्त होकर सो जाती है, या सोने का बहाना कर आंखें मूंद लेती है या अहं या मजाक में रोते हुए बच्चे को नहीं उठाती, तब वह पुरुष उठता है और अकधात्री की भांति बच्चे को गोद में उठाकर, अनेक प्रकार के उल्लापकों के द्वारा उसे सुलाने का प्रयत्न करता है । वह लोरी गाते हुए कहता है-तुम इस नगर के, हस्तिकल्प, गिरिपत्तन, सिंहपुर, ऊंचे-नीचे भू भाग वाले कुक्षिपुर, कान्यकुब्ज और आत्ममुख सौर्यपुर के स्वामी हो । इस प्रकार असंबद्ध आलापकों से वह बच्चे को सुलाता है।' १२६.धोबी (हंसा) इसका अर्थ है-धोबी।' गृहस्थाश्रम में वह पुरुष शौचवादी था। प्रव्रज्या लेने के बाद वह आत्मस्थित हुआ। किन्तु प्रव्रज्या से च्युत होकर वह स्वयं अपनी प्रेयसी और बच्चे के सूतकवस्त्र धोने में लज्जा का अनुभव नहीं करता। वह धोबी की तरह उसके कपड़े धोता है। श्लोक ४६ १२७. (दासे मिए व पेस्से वा) चूर्णिकार की व्याख्या इस प्रकार है कामभोग के लिए प्रव्रज्या को छोड़कर जो भ्रष्ट हो गए हैं, उन पुरुषों के साथ स्त्रियां दास की भांति व्यवहार करती हैं, पालतू पशु की भांति मारती-पीटती है तथा प्रेष्य की भांति उसे अनेक प्रकार के कार्यों में नियोजित करती हैं। वृत्तिकार की व्याख्या इस प्रकार है१. (क) चूणि, पृ० ११६: यदा सा रतिभरवान्ता वा प्रसुप्ता भवति, इतरधा वा पसुत्तलक्खेण वा अच्छति, चेएन्तिया वा गब्वेण लोलाए वा बारगं रुतं पि णण्णति (ण गेण्हति) ताधे सो तं दारगं अंकधावी विव णाणाविधेहिं उल्लापएहि परियंवन्तो ओसोवेतिसामिओ मे णगरस्स य, हत्थवप्प-गिरिपट्टण-सोहपुरस्स य । अण्णतस्स भिण्णस्स य कंचिपुरस्स य, कण्णउज्ज-आयामुह-सोरिपुरस्स य॥ (ख) वृत्ति, पत्र ११६ । २. (क) चूणि, पृ० ११६ : हंसो नामा रजकः । (ख) वृत्ति, पत्र ११६ : हंसा इव रजका इव । ३. चूणि, पृ० ११६ : शौचवादिका गहवासे प्रव्रज्यायां वा सुठ्ठ वि आतट्ठिया होऊण एगंतसोला वा सूयगवत्थाणि धोयमाणा वत्थाधुवा भवंति। ४. चूणि, पृ० ११६ : दासवद् भुज्यते, मृगवच्च भवति, यथा मृगो वशमानीत: पच्यते मार्यते वा मुच्यते वा, प्रेष्यवच्च प्रेष्यते णाणाविधेसु कम्मेसु। ५. वृत्ति, पत्र ११६ : तथा यो रागान्धः स्त्रीभिर्वशीकृतः स दासवदशङ्किताभिस्ताभिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते, तथा वागुरापतितः परवशो मृग इव धार्यते, नात्मयशो भोजनादिक्रिया अपि कर्त लभते, तथा प्रेष्य इव कर्मकर इव क्रयकीत इव वर्च:शोधनादावपि नियोज्यते। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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