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सूयगडो १
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अध्ययन ४: टिप्पण १२३-१२४
श्लोक ४७: १२३. पुत्र रूपी फल के उत्पन्न होने पर (जाए फले समुप्पण्णे) ___ फल का अर्थ है-प्रधानकार्य । मनुष्यों के कामभोगों की प्रधान निष्पत्ति है-पुत्र का जन्म । नीतिकारों का कथन है
'पुत्र जन्म स्नेह का सर्वस्व है। यह धनवान और दरिद्र-दोनों के लिए समान है। यह चन्दन और खस से बना हुआ न होने पर भी हृदय को शीतलता देने वाला अनुपम लेप है।'
तुतली बोली बोलने वाले बालक ने 'शयनिका' के स्थान पर 'शपनिका' कह डाला । सांख्य और योग को छोड़कर वह शब्द मेरे मन में रम रहा है।
संसार में पुत्र का मुख अपना दूसरा मुख है । इस प्रकार पुरुषों के लिए पुत्र परम अभ्युदय का कारण है।' १२४. इसे (पुत्र को) ले अथवा छोड़ दे (गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि)
__ पुत्र के उत्पन्न हो जाने पर स्त्रियां पुरुषों की किस प्रकार से विडंबना करती हैं, उसका दिग्दर्शन इस चरण में हुआ है। वे कहती हैं- 'तुम इस बालक को संभालो। मैं कार्य में व्यस्त हूं। मुझे क्षण मात्र का भी अवकाश नहीं है। चाहे तुम इस बच्चे को छोड़ दो। मैं इसकी बात भी नहीं पूछूगी।' कभी कुपित होने पर कहती है- 'मैंने इस बालक को नौ महीने तक गर्भ में रखा। तुम इसे कुछ समय तक गोद में उठाने के लिए भी उद्विग्न हो रहे हो !'
दास अपने स्वामी के आदेश का पालन उद्विग्नता से भय के कारण करता है, किन्तु स्त्री का वशवी मनुष्य स्त्री के आदेश को अनुग्रह मानता है और उसके निष्पादन में प्रसन्नता का अनुभव करता है। कहा है'---
मेरी स्त्री मुझे जो रुचिकर है, वही करती है। ऐसा वह मानता है। किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह स्वयं वही कार्य करता है जो अपनी प्रिया को रुचिकर हो ।
१. (क) चूणि, पृ० ११६ : फलं किल मनुष्यस्य कामभोगा: तेषामपि पुत्रजन्म । उक्तं च
इदं तु स्नेहसर्वस्वं सममाढ्य-दरिद्रिणाम् । अचन्दनमनौशीरं हृदयस्यानुलेपनम् ॥१॥ यत् तत् थ-प-न केल्युक्तं बालेनाव्यक्तभाषिणा। हित्वा साङ्खयं च योगं च तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥ लोके पुत्रमुखं नाम द्वितीयं मुखमात्मनः ।....... साऽथ जाधे किचि आणत्ता भवति ताधे भणति-दारके वामहत्थे तुम चेव करेहि । अतिणिबंधे वा तस्स
अप्पेतुं भणति-एस ते। (ख) वृत्ति, पत्र ११८: २. वृत्ति, पत्र ११८ : जाते तदुद्देशेन या विडम्बनाः पुरुषाणां भवन्ति ता दर्शयति-अमुं दारकं गृहाण त्वम्, अहं तु कर्माक्षणिका न मे
ग्रहणावसरोऽस्ति, अथ चैनं जहाहि परित्यज नाहमस्य वार्तामपि पृच्छामि, एवं कुपिता सती ब्रूते, मयाऽयं नव मासानुदरेणोढः त्वं पुनरुत्सङ्गेनाप्युद्वहन स्तोकमपि कालमुद्विजस इति, दासदृष्टांतस्त्वादेशदानेनैव साम्यं भजते, नादेशनिष्पादनेन, तथाहि-दासो भयादुद्विजन्नादेशं विधत्ते, स तु स्त्रीवशगोऽनुग्रहं मन्यमानो मुदितश्च तदादेश विधत्ते, तथा चोक्तम्
यदेव रोचते मह्य, तदेव कुरुते प्रिया। इति वेत्ति न जानाति, तत्प्रियं यत्कारोत्यसौ ॥१॥ बदाति प्रार्थितः प्राणान्, मातरं हंति तत्कृते । किं न दद्यात् न कि कुर्यात्स्त्रीभिरभ्यथितो नरः ॥२॥ ददाति शौचपानीयं, पादौ प्रक्षालयत्यपि । श्लेष्माणमपि गह्नाति, स्त्रीणां वशगतो नरा ॥३॥
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