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सूयगडो १
अध्ययन ४: टिप्पण ११९-१२२ ११६. घर की ठीक व्यवस्था कर (आवसहं जाणाहि भत्ता !)
___ स्त्री कहती है- 'भर्ता ! वर्षा ऋतु शिर पर मंडरा रही है। यह घर स्थान-स्थान पर टूटा-फूटा हुआ है। अनेक स्थानों पर पानी चू रहा है । तुम इसको ठीक कर दो। इसे निति बना दो। कही भी पानी न चूए, ऐसा कर दो, जिससे कि हम वर्षाकाल के चार महीने सुखपूर्वक बिता सकें।'
प्रस्तुत चरण में चूर्णिकार ने 'भत्ता' को संबोधन मानकर अर्थ किया है। वृत्तिकार ने 'भत्तं' शब्द मान कर इसका अर्थ तंदुल आदि किया है। संभव है लिपिकारों ने 'भत्ता' के स्थान पर 'भत्तं च' पाठ लिख दिया हो ।
श्लोक ४६ : १२०. खटिया (आसंदियं)
बैठने के योग्य मंचिका तीन प्रकार की होती थी१. सूत के धागों से गूंथी हुई। २. चमड़े की डोरी से गूंथी हुई।
३. चमड़े से मढ़ी हुई। १२१. काष्ठपादुका (पाउल्लाइं)
चुणिकार के अनुसार स्त्री कहती है-वर्षाकाल में चारों ओर कीचड़ हो जाता है। खड़ाऊ से कीचड़ को सुखपूर्वक पार किया जा सकता है । इसे पहन कर रात या दिन में भी कीचड़ पर चला जा सकता है।
वृत्तिकार ने काठ की या मूंज की बनी पादुकाओं का उल्लेख किया है। स्त्री कहती है-पर्यटन करने के लिए मझे खड़ाऊ ला दो । मैं बिना पादुकाओं के एक पैर भी नहीं चल सकती। १२२. (अदु...."दासा वा)
उस गर्भवती स्त्री के तीसरे महीने में दोहद उत्पन्न होता है, तब वह उस पुरुष को दास की भांति आज्ञा देती है और विविध प्रकार की वस्तुएं मंगाती है। वह कहती है-मुझे चावल रुचिकर नहीं लगते, कोई और चीज ला दो। यदि अमुक चीज नहीं मिलेगी तो मैं मर जाऊंगी अथवा मेरे गर्भपात हो जाएगा। वह आसक्त पुरुष उसकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करता है।
वधर्माता
१.णि, पृ० ११८ : तेण णिवायं णिप्पगलं च आवसधं जाणाहि भत्ता! जेण चत्तारि मासा चिक्खल्लं अच्छंदमाणा सहं
अच्छामो ....... इधई वा इमो आवसहो सडिल-पडितो एतं संठवेहि ति । २. वृत्ति, पत्र ११८ : आवसथं गृहं प्रावटकालनिवासयोग्यं तथा भक्तं च तन्दुलादिकं तत्कालयोग्यं जानीहि निरूपय निष्पादय येन
सुखेनैवानागतपरिकल्पितावसथादिना प्रावृटकालोऽतिवाह्यते इति । ३. (क) चूणि, पृ० ११८ : आसंदिगा णाम वेसणगं । णवसुत्तगो णवएण सुत्तेण उणट्ठिया (उण्णुट्टिया)-पट्टेण चम्मेण वा। (ख) वृत्ति, पत्र ११८ : आसंदियं इत्यादि आसन्दिकामुपवेशनयोग्यां मञ्चिका .......... 'सा नवसूत्रा ताम् उपलक्षणार्थत्वाद
वध्रचर्मावनद्धाम् । ४. चूणि, पृ० ११८ : पाउल्लगाई ति कट्ठपाउगाओ, ताहि सुहं चिक्खल्ले संकमिज्जत्ति, रत्तिविरत्तेसु संकम वा करेसि चिक्खल्लस्स
उरि । ५. वत्ति, पत्र ११८ : एवं च-मौजे काष्ठपादुके वा संक्रमणार्थ पर्यटनार्थ निरूपय, यतो नाहं निरावरणपादा भूमौ पदमपि दातुं
समर्थेति । ६. चूणि, पृ० ११८ : जाहे सा गम्भिणी तइयमासे दोहिलणिगा भवति तो णं दासमिव आणवेति, आगलफलाणि वि मग्गइ ति, भत्तं
मे ण रुच्चइ, अमुगं मे आणेहि, जह णाऽऽणेहिं तो मरामि गम्भो वा पडेति, स चापि दासवत् सर्व करोति आणत्तियं।
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