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सूयगडो १ ३४. वत्थगंधमलंकार
इत्थीओ सय गाणि य। भुजाहिमाई भोगाई
आउसो ! पूजायामु तं ॥१७॥ ३५. जो तुमे णियमो चियो भिक्खुभावम्मि सुब्बया!। अगारमावसंतस्स
सव्वो संविजए तहा।१८। ३६. चिरं दूइज्जमाणस्स
दोसो दाणि कुओ तव ?। इच्चेव णं णिमंतेंति
णीवारेण व सूयरं ।१६। ३७. चोइया भिखुचरियाए
अचयंता जवित्तए। तत्थ मंदा विसीयंति
उज्जाणंसि व दुब्बला ।२०। ३८. अचयंता व लहेण
उवहाणेण तज्जिया। तत्थ मंदा विसीयंति पंकसि व जरगवा ॥२१॥
१३६ प्र० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ३४-४१ वस्त्रगंधालंकारं,
३४. वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्रियां और पलंग-इन भोगों स्त्रियः शयनानि च । को भोगो । आयुष्मन् ! हम (इन वस्तुओं का उपभुङन इमान् भोगान्, हार देकर) तुम्हारी पूजा करते हैं।
आयुष्मन्! पूजयामस्त्वाम् ॥ यस्त्वया नियमः चाणः, ३५. हे सुव्रत ! तुमने भिक्षु-जीवन में जिस नियम का भिक्षुभावे सुव्रत !। आचरण किया है, वह सब घर में बस जाने पर अगारमावसतः,
भी वैसे ही विद्यमान रहेगा।" सर्वः संविद्यते तथा ॥ चिरं द्रवतः, ३६. तुम चिरकाल से (मुनिचर्या में) विहार कर रहे दोष इदानों कुतस्तव ?। हो, अब तुममें दोष कहां से आयेगा ?' वे भिक्षु को इत्येवं तं निमन्त्रयन्ति, इस प्रकार निमंत्रित करते हैं जैसे चारा५ डालकर नीवारेण इव सूकरम् ॥
सूअर को। चोदिताः भिक्षचया, ३७. भिक्षुचर्या में चलने वाले किन्तु उसका निर्वाह करने अशक्नुवन्तः यापयितुम् । में असमर्थ मंद पुरुष वैसे ही विषाद को प्राप्त तत्र मन्दाः विषोदन्ति, होते हैं जैसे ऊंची चढाई में" दुर्बल (बैल)। उद्याने इव दुर्बलाः ।। अशक्नवन्तः वा रूक्षेण, ३८. संयम-पालन में असमर्थ तथा तपस्या से" तजित मंद उपधानेन तजिताः । पुरुष वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे कीचड़ तत्र मन्दाः विषीदन्ति, में बूढ़ा बैल । पंके इव जरद्गवाः ॥ एवं निमन्त्रणं लब्ध्वा, ३६. विषयों में मूच्छित, स्त्रियों में गृद्ध और कामों में मूच्छिताः गृद्धाः स्त्रीषु । आसक्त भिक्षु इस प्रकार का निमंत्रण पाकर, अध्युपपन्नाः कामेष,
समझाने-बुझाने पर भी घर चले जाते हैं । चोद्यमानाः गृहं गताः ॥ इति ब्रवीमि ॥
-ऐसा मैं कहता हूं।
३६. एवं णिमंतणं लद्ध
मुच्छिया गिद्ध इत्थिसु। अझोववण्णा काहि चोइज्जंता गिहं गय ।२२॥
-त्ति बेमि॥
तइप्रो उद्दे सो : तोसरा उद्देशक
४०. जहा संगामकालम्मि पिओ भीरु वेहइ। वलयं गहणं णूमं
को जाणइ पराजयं ?॥१॥ ४१. मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स
मुहुत्तो होइ तारिसो। पराजियाऽवसप्पामो इति भीरू उवेहई ।२।
यथा संग्रामकाले, ४०. जैसे युद्ध के समय डरपोक सैनिक पीछे की ओर पृष्ठतः भोरूः प्रेक्षते । गढे," खाई और गुफा" को देखता है, कौन जाने वलयं गहनं 'णूम', पराजय हो जाये ? को जानाति पराजयम् ?॥ महत्तानां महर्तस्य, ४१. घड़ी और घड़ियों में कोई एक घड़ी ऐसी होती है महत्तॊ भवति तादृशः । (जिसमें जय या पराजय होती है)। पराजित होने पराजिता अवसामः, पर हम पीछे भागेंगे, इसलिए वह डरपोक सैनिक इति भोरूः उपेक्षते ॥ (पीछे की ओर छिपने के स्थान को) देखता है।
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