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सूयगडो१
प्र.३: उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० २५-३३
यत् किञ्चिद् ऋणकं तात!, २५. 'तात ! तुम्हारा जो कुछ ऋण था उस सबको हमने तदपि सर्व समोकृतम् । चुका दिया है। व्यापार आदि के लिये तुम्हें जो हिरण्यं व्यवहाराय,
धन की आवश्यकता होगी, वह भी हम तुम्हें देंगे। तदपि दास्यामः ते वयम् ॥
२५. जं किंचि अणगं तात !
तं पि सव्वं समीकतं । हिरण्णं ववहाराइ
तं पि दाहामु ते वयं ।। २६. इच्चेव णं सुसेहंति
कालुणीयउवट्ठिया । विबद्धो णाइसंगेहि
तओsगारं पहावई ।। २७. जहा रुखं वणे जायं
मालुया पडिबंधई। एवं णं पडिबंधति णायओ असमाहिए।१०।
इत्येव तं सुसेधन्ति, कारुण्यमपस्थिताः । विबद्धो ज्ञातिसंगैः, ततः अगारं प्रधावति ॥
२६. इस प्रकार वे करुण क्रन्दन करते हुये उसे विपरीत
शिक्षा देते हैं।" ज्ञातिजनों के सम्बन्धों से बंधा हुआ वह घर लौट आता है।
यथा रूक्षं बने जातं, मालका प्रतिबध्नाति । एवं तं प्रतिबध्नन्ति, ज्ञातयः असमाधिना ॥
२७. जिस प्रकार वन में उत्पन्न वृक्ष को मालुका लता"
वेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार ज्ञातिजन उसको असमाधि में जकड़ देते हैं ।
२८. जैसे नया पकड़ा हुआ हाथी (उचित उपायों से)
बांधा जाता है वैसे ही वह ज्ञातियों के संग से बंध जाता है।" ज्ञाति जन उसके पीछे वैसे ही चलते हैं जैसे नई ब्याई हुई गाय अपने बछड़े के पीछे।४५
२८. विबद्धो णाइसंगेहि
हत्थी वा वि णवग्गहे। पिट्टओ परिसप्पंति
सूती गो व्व अदूरगा।११। २६. एए संगा मणुस्साणं
पायाला व अतारिमा। कीवा जत्थ य किस्संति णाइसंगेहि मुच्छिया ।१२।
विबद्धो ज्ञातिसंगैः, हस्तो वापि नवग्रहे । पृष्ठतः परिसर्पन्ति, सूतिका गौरिव अदूरगा। एते संगा मनुष्याणां, पाताला इव अतार्याः । क्लीबा यत्र च क्लिश्यन्ति, ज्ञातिसंगैः मच्छिताः ॥
२६. मनुष्यों के लिये ये ज्ञाति-संबंध पाताल (समुद्र")
की भांति दुस्तर हैं। ज्ञाति-संबंधों में मूच्छित पौरुषहीन व्यक्ति वहां क्लेश पाते हैं।
३०. तं च भिक्ख परिण्णाय
सव्वे संगा महासवा। जीवियं णावखेज्जा सोच्चा धम्ममणुत्तरं ।१३।
तं च भिक्षः परिज्ञाय, सर्वे संगाः महाश्रवाः । जीवितं नावकाक्षेत्, श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् ॥
३०. सभी संग महान् आश्रय (कर्म-बंध के हेतु) हैं
इसे जानकर तथा अनुत्तर धर्म को सुनकर भिक्षु गृहवासी-जीवन की आकांक्षा न करे ।
३१. अहिमे संति आवट्टा
कासवेण पवेइया। बुद्धा जत्थावसप्पंति सीयंति अबुहा जहि ॥१४॥
अथ इमे सन्ति आवर्ताः, काश्यपेन प्रवेदिताः । बुद्धाः यत्र अपसर्पन्ति, सीदन्ति अबुधा यत्र ॥
३१. ये (वक्ष्यमाण) आवर्त हैं-ऐसा काश्यप (भगवान्
महावीर) ने कहा है। बुद्ध उनसे दूर रहते हैं और अ-बुद्ध उनमें फंस जाते हैं ।
३२. रायाणो रायऽमच्चा य
माहणा अदुव खत्तिया। णिमंतयंति भोगोह भिक्खुयं साहुजीविणं ।१५॥
राजानो राजामात्याश्च, ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः । निमन्त्रयन्ति भोगः, भिक्षुकं साधुजी विनम् ॥
३२. राजा, राजमंत्री, ब्राह्मण" अथवा क्षत्रिय"
संयमजीवी भिक्षु को भोगों के लिये निमन्त्रित करते हैं -५१
३३. हत्यस्स-रह-जाणेहि
विहारगमणेहि य। भंज भोगे इमे सग्घे महरिसी ! पूजयामु तं ॥१६॥
हस्त्यश्वरथयानैः, विहारगमनैश्च भुङ क्ष्व भोगान् इमान् श्लाघ्यान्,
महर्षे! पूजयामस्त्वाम् ।।
३३. तुम हाथी, घोड़े, रथ और यान तथा उद्यानक्रीड़ा
के द्वारा इन श्लाघनीय भोगों को भोगो । महर्षे ! हम (इन वस्तुओं का उपहार देकर) तुम्हारी पूजा करते हैं।
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