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________________ सूयगडो १ ४२. एवं तु समणा एगे अबलं णच्चाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स अवकप्पंतिमं सुयं ।३। ४३. को जाणइ वियोवातं इत्थीओ उदगाओ वा?। चोइज्जंता पवक्खामो ण णे अस्थि पकप्पियं ।।। ४४. इच्चेवं पडिलेहंति वलयाइ पडिलेहिणो। वितिगिछसमावण्णा पंथाणं व अकोविया ॥५॥ ४५. जे उ संगामकालम्मि णाया सूरपुरंगमा। ण ते पिट्ठमुवेहिति किं परं मरणं सिया ?।६। १४० प्र० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ४२-५० एवं तु श्रमणा एके, ४२. इसी प्रकार कुछ श्रमण अपने को दुर्बल जानकर, अबलं ज्ञात्वा आत्मकम् । भविष्य के भय को देखकर इस श्रुत (निमित्त, अनागतं भयं दृष्ट्वा , ज्योतिष आदि) का अध्ययन करते हैं। अवकल्पयन्ति इदं श्रुतम् ।। को जानाति व्यवपातं, ४३. 'कौन जाने स्त्री या जल के (परीसह न सह सकने स्त्रीतः उदकाद् वा। के) कारण संयम से पतन हो जाये !' हमारे पास चोद्यमानाः प्रवक्ष्यामः, धन अजित नहीं है इसलिए प्रश्न पूछने पर हम न नः अस्ति प्रकल्पितम् ॥ (निमित्त आदि विद्या का प्रयोग करेंगे । इत्येवं प्रतिलिखन्ति, ४४. गढ़ों को देखने वाले इसी प्रकार सोचा करते हैं । वलयादिप्रतिलेखिनः । पथ को नहीं जानने वाले जैसे पथ के प्रति संदिग्ध विचिकित्सासमापन्नाः, होते हैं, वैसे ही वे श्रमण (अपने श्रामण्य के प्रति) पन्थानं इव अकोविदाः ॥ संदिग्ध रहते हैं। ये तु संग्रामकाले, ज्ञाताः शूरपुरङ्गमाः । न ते पृष्ठं उपेक्षन्ते, किं परं मरणं स्यात् ॥ ४५. जो लोग प्रसिद्ध, शूरों में अग्रणी हैं वे संग्राम-काल में पीछे मुड़कर नहीं देखते। (वे यह सोचते हैं) मरने से अधिक क्या होगा ?९४ ४६. एवं समुट्टिए भिक्खू वोसिज्जा गारबंधणं । आरंभं तिरियं कट्ट अत्तत्ताए परिव्वए।७। एवं समुत्थितः भिक्षुः, पुत्सृज्य अगारबन्धनम् । आरम्भं तिर्यक् कृत्वा, आत्मत्वाय परिव्रजेत् ॥ ४६. इस प्रकार घर के बन्धन को छोड़कर (संयम में) उपस्थित भिक्षु आरंभ (हिंसा) को छोड़कर आत्म-हित के लिसे" परिव्रजन करे । ४७. तमेगे परिभासंति भिक्खुयं साहुजीविणं । जे एवं परिभासंति अंतए ते समाहिए। तमेके भिक्षकं ये एवं अन्तके परिभाषन्ते, साधुजोविनम् । परिभाषन्ते, ते समाधेः ॥ ४७. कुछ अन्यतीथिक साधु-वृत्ति से जीने वाले उस भिक्षु की निंदा करते हैं। जो इस प्रकार निंदा करते हैं वे समाधि से दूर हैं । ४८. संबद्धसमकप्पा हु अण्णमण्णेसु मुच्छिया। पिंडवायं गिलाणस्स जं सारेह दलाह य ।। सम्बद्धसमकल्पाः खलु, अन्योन्यं मूच्छिताः । पिण्डपातं ग्लानस्य, यद् सारयत दत्त च॥ ४८. (वे कहते हैं -) आप एक-दूसरे में मूच्छित होकर गृहस्थों के समान आचरण करते हैं । आप रोगी के लिये पिंडपात (आहार) लाकर उन्हें देते ४६. एवं तुब्भे सरागत्था अण्णमण्णमणव्वसा । णट्ठ-सप्पह-सब्भावा संसारस्स अपारगा।१०॥ एवं यूयं सरागस्थाः , अन्योन्यं अनवशाः । नष्टसत्पथसद्भावा:, संसारस्य अपारगाः ॥ ४६. इस प्रकार आप रागी, एक-दूसरे के वशवर्ती, सत्पथ की उपलब्धि से दूर तथा संसार का पार नहीं पाने वाले हैं। ५०. अह ते पडिभासेज्जा भिक्खू मोक्खविसारए। एवं तुब्भे पभासंता दुपक्खं चेव सेवहा ॥११॥ अथ तान् प्रतिभाषेत, भिक्षः मोक्षविशारदः । एवं यूयं प्रभाषमाणाः, द्विपक्षं चैव सेवध्वे ॥ ५०. मोक्ष-विशारद भिक्षु उन तीथिकों से कहे-'इस प्रकार आप (हम पर) आरोप लगाते हैं, (और स्वयं) द्विपक्ष का सेवन करते हैं । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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