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[१५] प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका बहुत ही लघुकाय है। हमारी परिकल्पना है कि सभी अंगों और उपांगों की बृहद् भूमिका एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में हो। संस्कृत छाया
संस्कृत छाया को हमने वस्तुत: छाया रखने का ही प्रयत्न किया है । टीकाकार प्राकृत शब्द की व्याख्या करते हैं अथवा उसका संस्कृत पर्यायान्तर देते हैं । छाया में वैसा नहीं हो सकता। हिन्दी अनुवाद और टिप्पण
प्रस्तुत आगम का हिन्दी अनुवाद मूलस्पर्शी है। इसमें केवल शब्दानुवाद की-सी विरसता और जटिलता नहीं है तथा भावानुवाद जैसा विस्तार भी नहीं है। श्लोकों का आशय जितने शब्दों में प्रतिबिम्बित हो सके उतने ही शब्दों की योजना करने का प्रयत्न किया गया है। मूल शब्दों की सुरक्षा के लिए कहीं-कहीं उनका प्रचलित अर्थ कोष्ठकों में दिया गया है। श्लोक तथा श्लोकगत शब्दों की स्पष्टता टिप्पणों में की गई है।
इसका अनुवाद वि० सं० २०२६ बेंगलोर चतुर्मास में प्रारंभ किया था । यात्राओं तथा अन्यान्य कार्यों की व्यस्तता के कारण इसकी संपूर्ति में अधिक समय लग गया । अवरोधों की लम्बी यात्रा के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ तैयार होकर अब जनता तक पहुंच रहा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के टिप्पणों में चूणि के पृष्ठांक स्वर्गीय मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित तथा प्रकाशित सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कंध) की चूणि के हैं। अनुवाद और टिप्पण-लेखन में मुनि दुलहराजजी ने तत्परता से योग दिया है। इसका पहला परिशिष्ट मुनि दुलहराजजी ने, दूसरा मुनि धनंजयजी ने, तीसरा और चौथा मुनि हीरालालजी ने तथा पांचवां मुनि राजेन्द्रकुमारजी ने तैयार किया है । साध्वी जिनप्रभाजी ने संस्कृत छाया का पुनरावलोकन किया और मुनि सुदर्शनजी तथा समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने प्रूफ देखने में पूरा सहयोग दिया।
____ 'अंगसुत्ताणि' भाग १ में प्रस्तुत सूत्र का संपादित पाठ प्रकाशित है । इसलिए इस संस्करण में पाठान्तर नहीं दिए गए हैं। पाठान्तरों तथा तत्सम्बन्धी अन्य सूचनाओं के लिए 'अंगसुत्ताणि' भाग १ द्रष्टव्य है।
इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक साधुओं की पवित्र अंगुलियों का योग है। आचार्यश्री के वरदहस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं, फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं जिनका इस कार्य में योग है और आशा करता हूं कि वे इस महान कार्य के अग्रिम चरण में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे ।
आचार्यश्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत हैं । हमें इस कार्य में उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग दोनों प्राप्त है, इसलिए हमारा कार्यपथ बहुत ऋजु हुआ है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं कार्य की गुरुता को बढ़ा नहीं पाऊंगा। उनका आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य-पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशंसा है।
१५ अगस्त, १९८४ जोधपुर
-युवाचार्य महाप्रज्ञ
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