________________
टिप्पण: अध्ययन ३
श्लोक १: १. दृढ सामर्थ्य वाले (वढधम्माणं)
इसका संस्कृत रूप होगा 'दृढधर्माणम्' । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-समर्थ स्वभाव वाला अर्थात् युद्ध को दृढ़ता से लड़ने के स्वभाव वाला किया है।' चूर्णिकार ने 'दढधन्नाणं' पाठ मानकर उसका अर्थ दृढ़ धनुष्यवाला किया है। इसका संस्कृत रूप होगा 'दृढधन्वानम्' । यह महारथ का विशेषण है । २. कृष्ण को (महारह)
चूर्णिकार और टीकाकार-दोनों ने इसका अर्थ कृष्ण किया है।'
३. शिशुपाल (सिसुपालो)
एक नगर में दमघोष नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम माद्री था। वह कृष्ण की बहिन थी। उसके पुत्र का जन्म हुआ। उसके चार भुजाएं थीं। वह बहुत बल-संपन्न था। चतुर्भुज पुत्र को देख माता को बहुत आश्चर्य हुआ। एक ओर उसके मन में पुत्र-प्राप्ति का हर्ष था तो दूसरी ओर पुत्र के चतुर्भुज होने के कारण भय । उसने नैमित्तिकों को बुला भेजा। नैमित्तिक आये, पुत्र को देखकर बोले-यह शिशु पहान् पराक्रमी और संग्राम में दुर्जेय होगा। जिसको देखकर इसकी दो अतिरिक्त भुजायें नष्ट हो जायेंगी, उसी व्यक्ति से इसको भय होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।' यह सुनकर माता का मन भय से भर गया। माद्री को पूत्रजन्म की बधाई देने के लिये अनेक लोग आये। माद्री सबको अपना पुत्र दिखलाती और यथायोग्य सबके चरणों में उसे लुटाती। कृष्ण भी वहां आये । माद्री ने उनके चरणों में पुत्र को लुटाया। कृष्ण के देखते ही शिशु की दो अतिरिक्त भुजाएं विलीन हो गई। यह देख माद्री कृष्ण के पास गई और पुत्र को अभय देने की प्रार्थना की । कृष्ण ने कहा-मैं इसके सौ अपराधों को क्षमा कर दूंगा। आगे नहीं।' दिन बीते । शिशुपाल युवा हुआ। वह अपने यौवन के मद से अन्धा होकर कृष्ण की असभ्य वचनों से अवहेलना करने करने लगा। समर्थ होते हुए भी कृष्ण उसे सहते रहे। शिशुपाल वैसे ही करता रहा। जब सौ बार अपराध हो चुके तब कृष्ण ने उसे सावधान किया। किन्तु शिशुपाल नहीं माना । अन्त में कृष्ण ने अपने चक्र से उसका शिर काट डाला।'
श्लोक २:
४. माता अपने पुत्र को नहीं जान पाती (माया पुत्तं ण जाणाइ)
इस चरण के द्वारा संग्राम की भीषणता प्रदर्शित की गई है। जब योद्धाओं द्वारा आयुधों का परस्पर प्रहार होता है और उनके द्वारा नागरिक भी क्षत-विक्षत होते हैं तब माताएं भी भयभ्रांत होकर अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को छोड़कर भाग जाती हैं अथवा उनके हाथ या कटि से बच्चों के गिर जाने पर भी उन्हें पता नहीं चलता। इस प्रकार का आतंकपूर्ण संग्राम 'माता-पुत्रीय
१. बत्ति, पत्र ८०: दृढः-समर्यो धर्म:-स्वभावः सङ्ग्रामामङ्गरूपो यस्य स तथा तम् । २. चूणि, पृ० ७१ : दृढं धनुर्यस्य स भवति दृढधन्वा तं दृढयवानम् । ३. (क) चूणि, पृ०७१ : मधारधो केसवो।
(ख) वृत्ति, पत्र ८० : महान रथोऽस्येति महारथः, स च प्रक्रमावत्र नारायणः । ४. (क) चूणि, पृ० ७८,७६ ।
(ख) वृत्ति, पत्र ८२।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org