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सूयगडो १
संग्राम' कहलाता है।'
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लोक ३ :
५. अपुष्टधर्मा (अपुट्ठे)
पूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ अष्टधर्मा और विकल्प में परीषहों से अस्पष्ट या अवृष्टधर्मा किया है। वृतिकार केवल 'अस्पृष्ट' अर्थ ही करते हैं । प्रसंगवश चूर्णिकार द्वारा स्वीकृत पहला अर्थ ही संगत लगता है ।
देखें १ / १४ / ३ का टिप्पण ।
६. अपने आपको शूर मानता है (सूरं मण्णइ अप्पाणं)
वह प्रव्रजित होते समय सोचता है— प्रव्रज्या में दुष्कर है ही क्या ? जिसने निश्चय कर लिया है उसके लिए कौन-सा कार्य दुष्कर होता है । आदमी सिंह, बाघ आदि के साथ भी लड़ सकता है, संग्राम में जा सकता है, आग में कूद सकता है—इस प्रकार संयम के कष्टों को न जानने वाला व्यक्ति अपने आपको शूर मानता है ।
७. रूक्ष (संयम) का (लूहं )
संयम रूक्ष होता है, क्योंकि उसमें कर्म-बंध नहीं होता । जैसे रूक्ष पट पर रजें नहीं चिपकतीं, वैसे ही संयम में कर्मों का श्लेष नहीं होता । अतः रूक्ष शब्द का अर्थ है - संयम । "
अध्ययन ३ टिप्पण ५-८
संयम का पालन कष्टकर होता है कुछ अधीर व्यक्ति साधुत्रों को मैले-कुचैले देखकर संयम से युत हो जाते हैं। कुछ आधे केशलुंचन में और कुछ केशलुंचन की समाप्ति पर उससे घबड़ा कर भाग खड़े होते हैं । कुछ व्यक्ति केशों के परिष्ठापन के लिए जाते हैं और वहीं से घर चले जाते हैं। इस प्रकार संयम का पालन कष्टकर होता है । '
श्लोक :
८. जाड़े के महीनों में (हेमंतमासम्म )
इस शब्द के द्वारा पौष और माघ —- ये दो महीने गृहीत हैं । चूर्णिकार के अनुसार इन महीनों में भयंकर ठंड पड़ती है, आकाश में वर्षा के बादल उमड़ आते हैं और वायु भी तीव्र हो जाती है ।"
१ (क) चूर्ण, पृ० ७६ : माता पुत्तं ण याणाति, अमाता-पुत्रो यदा सङ्ग्रामो भवति । का भावना ? तस्यामवस्थायां माता पुत्रं मुक्तं उसानशयं क्षीराहारमजङ्गमं भयोभ्राग्ालोचना अप्पा (च्या) दण्णा न यानाति, नो (ना) पेक्षते, नत्राणायोद्यमते हस्तात् कटीतो वा भ्रश्यमानं भ्रष्टं वा न जानीते ।
(ख) वृत्ति पत्र ८० ततः सप्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकमसतिस
२. चूर्णि पृ० ७६ : अपुट्ठो नाम अप्पुट्ठधम्मो, अस्पृष्टो वा परीषहै, अद्दष्टधर्मा इत्यर्थः ।
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परीवहैः 'अस्पृष्टः' अच्युतः ।
३. वृति पत्र १ ४. नि, पृ० ७६
सति तत्र च सर्वस्याकुलीभूतत्वात् 'माता पुत्रं न जानाति' कटीतो भ्रश्यन्ते स्तनन्धयमपि न सम्यक् प्रतिजागर्त्तीत्येवं मातापुत्रीये सङ्ग्रामे ।
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५. (क) चूणि, पृ० ७९ : रूक्षः संयम एव, रूक्षत्वात् तत्र कर्माणि न श्लिष्यन्ति रजोवत् ।
(ख) वृत्ति पत्र
संयमं कर्मसंश्लेष कारणाभावात् ।
सोपवतो चिले भणति य-कि बजाए बुक का ति ? कि सिक्करं ? जणु सोहबन्धेहि विस जुज्भिज्जति, संगामे य पविसिज्जति, अग्गिपडणं च कोरह ।
६. नि, पृ० ७ तत्र केचिद् दृष्टेव साधून जल्लादहि लिप्ताङ्गान् विकृते सोये केचित् परिसमाप्ते केशान् खष्टं मात
एव यान्ति ।
७. णि, पृ० ७१ यत्रातील शीतं भवति, वर्ण-वर्वसाथमा वा तीव्रयाता भवन्ति यातग्रहणात् सोह-बग्ध-विरालोपाख्यानं बधा पो
:
वामहे वा ।
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