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अध्ययन ३: टिप्पण ९-१३
सूयगो १
१४७ ६.राजा (खत्तिया)
इसके अनेक अर्थ हैं-सामन्त, श्रेष्ठी (ग्राम-शासक) राजा आदि ।' यहां इसका अर्थ 'राजा' किया है।'
श्लोक ५: १०. कर्म से पलायन किए हुए हैं (कम्मंता)
कर्मान्त का अर्थ है-कृषि, पशुपालन आदि ।' वृत्तिकार ने 'कम्मत्ता' पाठ मानकर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है(१) अपने पूर्वकर्मों का फल भोगने वाले। (२) कृषि, पशुपालन आदि कार्यों से अभिभूत ।
श्लोक ६:
११. (साधुचर्या से) प्रतिकूल पथ पर चलने वाले (पाडिपंथियमागया)
जो जिसके प्रतिकूल है वह उसके लिये प्रातिपथिक होता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-साधुओं के विद्वेषी किया है।
१२. ये कृत का प्रतिकार कर रहे हैं (पडियारगया एए)
मुनि अहिंसा और अपरिग्रह की दृष्टि से जो साधना स्वीकार करता है उसे प्रातिपथिक व्यक्ति पूर्वकृत कर्मों का परिणाम बतलाते हैं । वे कहते हैं- इन मुनियों ने अन्य जन्मों में मार्ग त्याग दिया था, इसलिये ये नग्न घूम रहे हैं। इन्होंने दान नहीं दिया था, इसलिये इन्हें आहार नहीं मिल रहा है और यदि मिल रहा है तो ये ले नहीं पा रहे हैं। इन्होंने किसी को पानी नहीं पिलाया था, इसलिये ये निर्मल पानी भी नहीं पी रहे हैं।'
श्लोक १०
१३. पिण्ड मांगकर खानेवाले (पिंडोलग)
इसका अर्थ है-भिक्षा से निर्वाह करने वाला। पिंड का अर्थ है-भोजन और ओलग्ग (ओलग) का अर्थ है-पीछे लगा
१ देखें-दसवेआलियं ६/२ में 'खत्तिय' शब्द का टिप्पण। २ (क) चूणि, पृ० ७६ : खत्तिओ णाम राया।
(ख) वृत्ति, पत्र ८१ : क्षत्रिया राजानः । ३. चूणि, पृ० ८० : कृषी-पशुपाल्यादिभिः कर्मान्तः । ४. वत्ति, पत्र ८२ : पूर्वाचरितः कर्मभिरार्ताः पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदिवा-कर्मभिः-कृष्यादिभिरातः-तत्कर्तुमसमर्था
उद्विग्नाः । ५. चूणि, पृ० ८१ : पद्यतेऽनेनेति पन्थानं प्रति योऽन्यः पन्थाः स प्रतिपथः प्रतिपन्या वा, ........' अथवा यो यस्य विलोमका स तस्य
प्रातिपथिको भवति । ६. वृत्ति, पत्र ८२ : प्रतिपथ:-प्रतिकूलत्वं तेन चरन्ति प्रातिपान्थिकाः-साधुविद्वेषिणः । ७. चूणि, पृ० ८१ : पडियारगता एते, करणं कृतिर्वा कारः ते, कारं प्रति योऽन्यः कारः प्रतिकारः, तं गताः पडियारगताः पडियाई कम्माई
वेदंति, एतेहि अण्णाए जातीए पंथा उच्छुढा तेण णियणा हिंडंति, ण य दत्ताई वाणाई तेण न लमंति, लई पि पण गेण्हंति, ण वा उदगाणि वत्ताणि तेण ताणि ण पिबंति ।
प्रातिपायका
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