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यूयगडो १
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हुआ । अर्थात् जो भिक्षा के पीछे लगा हुआ है, भिक्षा से ही जीवन यापन करता है वह 'पिंडोलग' कहलाता है।
देखें - उत्तरज्भयणाणि ५ / २२ का टिप्पण |
१४. खुजली के कारण विकृत शरीर वाले (कंडू-विणरूंगा)
पसीने, मैल या मांकड के काटने पर व्यक्ति शरीर को अंगुली, नख, शुक्ति या शलाका आदि से खुजलाता है। धीरे-धीरे उसका शरीर विकृत होता जाता है, विनष्ट होता जाता है । "
खुजली करने से शरीर में कहीं घाव और कहीं रेखायें उभर आती हैं । इनसे शरीर विकृत हो जाता है । कुछ व्यक्ति अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करते । शरीर कभी रोगग्रस्त हो जाता है और उससे कोई न कोई शरीर का अंग विकृत होकर नष्ट हो जाता है ।'
अध्ययन ३ : टिप्पण १४ - १८
सनत्कुमार चक्रवर्ती थे । उन्हें संसार की असारता का बोध हुआ । दिया । बेले बेले की तपस्या करने लगे। एक बार पारणे में उन्हें बकरी की तपस्या की । पारणे में प्रान्त और नीरस आहार लेने के कारण उनके शरीर में वर्षों तक वे इन्हें सहते रहे । तपस्या का क्रम चलता रहा। शरीर विकृत हो गया ।
१५. मंले (उज्जल्ला)
उत् अर्थात् ऊपर आ गया है, जल्ल अर्थात् सूखा पसीना, उसे 'उज्जल्ल' कहा जाता है। तात्पर्य में इसका अर्थ होगा---
१७. मोह से (मोहेण)
वे प्रव्रजित हो गये । उन्होंने शरीर का परिकर्म छोड़ छाछ मिली। उससे पारणा किया। फिर बेले की कण्डू आदि सात व्याधियां उत्पन्न हुई । सात सौ
मैला ।"
१६. दुःखी हैं (असमाहिया)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थं किये हैं- असुन्दर अथवा दुःखी । वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है - जो मनुष्य असुन्दर, 'बीभत्स या दुष्ट होता है वह दूसरों में असमाधि उत्पन्न करता है ।
श्लोक ११:
भूमिकार ने मोह का अर्थ अज्ञान और वृतिकार ने 'मिथ्यादर्शन किया है।"
१८. अन्धकार से ( और भी घने
अंधकार में जाते हैं (तमाओ ते तमं जंति )
तम का अर्थ है—अज्ञान । अज्ञान से घोर अज्ञान में जाते हैं अर्थात् वे मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति वाले मोहनीय, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का बंध करते हैं । वे एकेन्द्रिय आदि एकान्त तमोमय योनियों में जन्म लेते हैं तथा सदा अन्धकार से व्याप्त
१. (क) चूर्णि पृष्ठ ८१ : पिंडेसु दीयमानेमु उल्लेति पिडोगा ।
(ख) वृत्ति, पत्र ८२ : 'पिंडोलग' त्ति पर पिण्डप्रार्थकाः ।
२. चूर्ण, पृ० ८१ : स्वेद- मल-मत्कुणा दिभिः खाद्यमाना अङ्गुल-नखशुक्ति-शलाकादीनां कण्डकितमार्ग: विणट्ठगा । २. वृत्ति पत्र
तथा
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रेखाभिर्वा विनष्टाः- विकृतशरीरा, अतिकर्मशरीरतया वा स्वचिद्रोगसम्ब सनत्कुमारवद्विष्टाङ्गः ।
४. (क) वृत्ति, पत्र ८२ तथोद्गतो जल्लः- शुष्कप्रस्वेदः ।
(ख) चूर्ण, पृष्ठ ८१ : उज्जल्ल त्ति उवचितजल्ला मलसकटाच्छादिताङ्गाः ।
५. ]ि पृ० ८१ असमाहितति अशोचना विवृताङ्गत्वात् अथवा असमाहिता दुविखता ।
६. वृत्ति, पृ० ८२, ८३ : असमाहिता अशोभना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति ।
७. चूणि, पृ० ८१ : मोहो अण्णाणं ।
८. वृत्ति पत्र ८३ : मोहेन मिथ्यादर्शनरूपेण ।
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