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________________ सयगडो १ ५६० प्र० १४ : ग्रन्थ : श्लोक ६-११ ६. सहाणि सोच्चा अदु भेरवाणि अणासवे तेसु परिव्वएज्जा । णिदं च भिक्खू ण पमाय कुज्जा कहं कहं वी वितिगिच्छ तिण्णे ॥ शब्दान् श्रुत्वा अथ भैरवान्, अनाश्रवः तेषु परिव्रजेत् । निद्रां च भिक्षुः न प्रमादं कुर्यात्, कथं कथं अपि विचिकित्सां तीर्णः ।। ६. मुनि प्रशंसा या कठोर शब्दों को सुन कर उनके प्रति मध्यस्थ रहता हुआ परिव्रजन करे । भिक्षु निद्रा-प्रमाद न करे । 'कैसे होगा ?' 'कसे होगा?'-" इस प्रकार की विचिकित्सा को तर जाए। ७. डहरेण वुड्ढेण ऽणुसासिते तु रातिणिएणाऽवि समन्वएणं । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे णिज्जंतए वावि अपारए से॥ दहरेण वृद्धेन अनुशासितस्तु, रालिकेनापि समव्रतेन । सम्यक् तक स्थिरतः नाभिगच्छेद्, नीयमानो वापि अपारगः सः ।। ७. (जन्म-पर्याय से) छोटे-बड़े तथा (दीक्षापर्याय से) छोटे-बड़े २९, रात्निक' या सह-दीक्षित के द्वारा अनुशासित होने पर जो उस अनुशासन को भली भांति स्थिर रूप में" (भूल को पुनः न दोहराने की दृष्टि से) स्वीकार नहीं करता वह संसार के पार ले जाया जाता हुआ भी उसका पार नहीं पा सकता।" ८. विउट्टितेणं समयाणु सिठे डहरेण वुड्ढेण ऽणुसासिते तु । अब्भुट्टिताए घडदासिए वा अगारिणं वा समयाणुसिढें ॥ व्युत्थितेन समयानुशिष्टः, दहरेण वृद्धेन अनुशासितस्तु । अभ्युत्थितया घटदास्या वा, अगारिणा वा समयानुशिष्टः ॥ ८. किसी शिथिलाचारी व्यक्ति के द्वारा समय (धार्मिक सिद्धांत) के अनुसार, किसी छोटे या बड़े के द्वारा, किसी पतित घटदासी के द्वारा अथवा किसी गृहस्थ के द्वारा समय (सामाजिक सिद्धांत) के अनुसार अनुशासित होने पर - ६. उन (अनुशासन करने वालों) पर क्रोध न करे", उन्हें चोट न पहुंचाए, कठोर वचन न कहे, 'अब मैं वैसा करूंगा', 'यह मेरे लिए श्रेय है"-ऐसा स्वीकार कर फिर प्रमाद न करे। ६.ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेज्जा ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा । तहा करिस्सं ति पडिस्सुणेज्जा सेयं खु मेयं ण पमाद कुज्जा ॥ न तेषु क्रुध्येत् न च प्रव्यथयेत्, न चापि किञ्चित् परुषं वदेत् । तथा करिष्यामि इति प्रतिशृणुयात्, श्रेयः खलु ममैतद् न प्रमादं कुर्यात् ॥ १०.वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तेणा वि मज्झं इणमेव सेयं जं मे बुधा सम्मऽणसासयंति ॥ बने मूढस्य यथा अमूढाः, मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् । तेनापि मम इदमेव श्रेयः, यद् मे बुधाः सम्यग् अनुशासति ॥ ११.अह तेण मूढेण अमूढगस्स कायव्व पूया सविसेसजुत्ता । एतोवमं तत्थ उदाहु वीरे अणुगम्म अत्थं उवणेइ सम्मं ॥ अथ तेन मुढेन अमूढकस्य, कर्तव्या पूजा सविशेषयुक्ता । एतां उपमां तत्र उदाह वीरः, अनुगम्य अर्थ उपनयति सम्यक् ।। १०. जैसे वन में दिग्मूढ व्यक्ति को अमूढ व्यक्ति" सर्व-हितकर मार्ग दिखलाते हैं।" और वह दिग्मूढ व्यक्ति (सोचता है) जो अमूढ पुरुष मुझे सही मार्ग बता रहे हैं, वही मेरे लिए श्रेय है। ११. (गन्तव्य-स्थल प्राप्त होने पर) उस दिग्मूढ व्यक्ति के द्वारा अमूढ (पथदर्शक) पुरुष की कुछ विशेषता सहित पूजा करणीय होती है। महावीर ने" इस प्रसंग में यह उपमा कही है । इसके अर्थ को समझकर मुनि इसका भलीभांति उपनय करता है-अपने पर घटित करता है।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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