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________________ सूयगडो १ १२. णेता जहा अंधकारंसि राओ मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे । से सुरियस्सा अनुगमेणं मग्गं विमाणाति पगासितंसि ॥ १३. एवं सेहे व अपुट्ठधम्मे धम्मं ण जाणाति अनुभमाणे । से कोविए निणययणेण पच्छा सूरोदए पासइ चक्खुणेव ॥ १४. आहे पं तिरियं दिसासु तसा य जे थावर जे य पाणा । सया जए तेसु परिव्वज्जा मणप्पओसं अविकपमाणे || १५. काले पुच्छे समियं पयासु आइलमाणो ववियस्स वित्तं । तं सोयकारी व पुढो पवेसे संखाइमं केवलियं समाहिं ॥ १६. अस्स सुठिच्चातिविहेण तायी एएम या संति णिरोधमाह । ते एवमक्वंति तिलोगवंसी ण मुक्तमेतं ति पमायसंगं ॥ १७. जिसम्म से भिक्खु समीहमट्ठ पडिभाणवं होति विसारदे य । आदाणमट्टी वोदाण-मोणं उवेच्च सुण उबेइ मोक्खं ॥ Jain Education International नेता मार्ग स मार्ग ५६१ यथा न अन्धकारे रात्रौ जानाति अपश्यन् । सूर्यस्य अभ्युद्गमने, विजानाति प्रकाशिते ॥ अष्टधर्मा एवं तु सेोऽपि धर्म न जानाति अनुध्यमानः । स कोविदः जिनवचनेन पश्चात् सूरोदये पश्यति चक्षषेव ॥ ऊर्ध्वं अधश्च तिर्यग दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावराः ये च प्राणाः । सदा यतः तेषु परिव्रजेत् मनः प्रदोषं अविकल्पमानः || कालेन पृच्छेत् सम्यक् प्रजासु, आचक्षाणं द्रव्यस्य वित्तम् । तं श्रोतः का च पृथक् प्रवेशयेत्, संख्याय इमं कैवलिकं समाधिम् ॥ अस्मिन् सुस्थित्य विविधेन तादृग्, एतेषु च शान्ति निरोधमा । ते एवमाख्यान्ति त्रिलोकदर्शिनः न भूयः एवं एति प्रमादसंगम् ।। निशम्य स भिक्षुः समोदय अर्थ, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्य । आदानार्थी व्यवदान मौनं उपेत्य शुद्धेन उपेति मोक्षम् ।। For Private & Personal Use Only श्र० १४ : ग्रन्थ : श्लोक १२-१७ १२. जैसे नेता (चलने वाला) रात के अंधकार में नहीं देखता हुआ मार्ग को नहीं जानता ", वह सूर्य के उगने पर प्रकाश में मार्ग को जान लेता हैं १३. इसी प्रकार अपुष्ट-धर्म वाला" शैक्ष, अज्ञानी होने के कारण, धर्मं को नहीं जानता। वह जिन प्रवचन के द्वारा ज्ञानी" होकर धर्म को जान लेता है, जैसे नेता सूरज के उगने पर चक्षु के द्वारा मार्ग को देख लेता है । १४. ऊंची, नीची ओर तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं उनके प्रति सदा संयम करता हुआ परिव्रजन करे, मानसिक प्रद्वेष का विकल्प न करे । *c ४७ १५. प्रजा के बीच में मुनि के वित्त ( ज्ञान आदि) की व्याख्या करने वाले आचार्य से, समय पर विनयावनत हो" पूर्ण समाधि के विषय में पूछे, उसे ग्रहण करे और इस पूर्ण या केवली - सबंधी समाधि को जानकर उसे विस्तार से अपने हृदय में स्थापित करे । १६. सा मुनि धर्म समाधि और मार्ग की" आराधनापूर्वक गुरुकुल-वास में सम्यम्-स्थित होकर इस धर्म समाधि और मार्ग) में प्रवृत्त होता है, उससे ( चित्त की ) " शान्ति और निरोध होता है । त्रिलोकदर्शी तीर्थंकर"" ऐसा कहते हैं कि वैसा मुनि फिर प्रमाद में लिप्त नहीं होता । १७. वह भिक्षु अर्थ को मुग, उसकी समीक्षा कर प्रतिभावा" और विशारद हो जाता है। वह आदान (ज्ञान आदि ) का अर्थी बना हुआ, तपस्या" और संयम" को प्राप्त कर शुद्ध ( धर्म, समाधि और मार्ग ) के द्वारा मोश को प्राप्त होता है । www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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