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सूयगडो १
१८. संखाए धम्मं च वियागरंति बुद्धा हु से अंतकरा भवति । ते पारगा दोण्ह विमोयणाए संसोधि
मुदाहरति ॥
१६. जो छाए णो वि व लूसएग्जा माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । ण याविपणे परिहास कुज्जा ण याऽसिसाबाद वियागरेजा ।।
२०. भूयाभिसंकाए दुगु छमाणे ण णिव्यहे मंतपण गोयं । ण किचि मिच्छे मणुए पयासु असाधम्माणि ण संवएज्जा ॥
२१. हासं पि णो संधए पावधम्मे ओए तहियं फरुसं वियाणे । णो तुच्छए णो य विकत्थएज्जा अणाइले या अक्साइ भिक्खू ॥
२२. संकेज्ज या siकितभाव भिक्खू विभज्जयायं च वियामरेज्जा । भासादुगं धम्मसमुद्धतेहि वियागरेज्जा समयाऽापणे ॥
२३. अगच्छमाणे विहं ऽभिजाणे तह तहा साह अकक्कसेणं । ण करबई भास विहिंसएग्जा णिरुद्ध वावि ण बीहएन्ना ॥
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संख्याय धर्म बुद्धाः खल ते
ते पारगाः संशोधितं
च व्याकुर्वन्ति अन्तकरा भवन्ति । द्वयोविमोचनाय प्रश्नमुदाहरन्ति ॥
नो छादयेद् नो अपि च लूषयेत्, मानं न सेवेत प्रकाशनं च । न चापि प्राज्ञः परिहासं कुर्यात्, आशीर्वादं व्याकुर्यात् ॥
न
च
भूताभिशंकया
जुगुप्समान,
न निर्वहे मंत्रपदेन गोत्रम् । न किञ्चिद् इच्छेद् मनुजः प्रजासु असापुधर्मान् न
संवदेत् ॥
हासमपि नो संधत्ते पापधर्मे, ओजा तथ्यं परुषं विजानीयात् । नो तुच्छयेद् नो च विकत्थयेत्, अनाविलश्च अकषायी भिक्षुः ॥
शंकेत विभज्यवाद
भाषाद्विकं
व्याकुर्यात्
च अशंकितभावो भिक्षुः,
च व्याकुर्यात् । धर्मसमुत्थितैः समया आशुप्रज्ञः ।।
"
अनुगच्छन् वितथमभिजानाति, तथा तथा साधु अकर्कशेन । न कुत्रचिद् भाषां विहिन्स्यात्, निरुद्धक वापि न दीर्घयेत् ॥
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अ० १४ ग्रन्थ श्लोक १८-२३
१८. जो आचार्य " ( क्षेत्र, काल, पुरुष और सामर्थ्य को ) जानकर " धर्म का प्रतिपादन करते हैं वे (शिष्यों के संदेहों का अन्त करने वाले होते हैं ।" वे श्रुत के पारगामी आचार्य" अपने और शिष्य के (संदेह ) विमोचन के लिए संशोधित प्रश्न की व्याख्या करते हैं । "
१६. प्रज्ञावान् न अर्थ को छिपाए ", न अपसिद्धान्त का निरूपण करे, न अभिमान करे, न अपना ख्यापन करे, ( सही न समझने वाले का ) परिहास" न करे और (तुष्ट होकर) होकर ) आशीवंचन (प्रवचन) क
२०. जीव- वध की आशंका से जुगुप्सा करता हुआ मंत्र पद के द्वारा" सयम जीवन का निर्वाहन करे । प्रजा में प्रवचन करता हुआ वह प्रवचनकार कुछ भी (यश, कीति आदि की ) इच्छा न करे और असाधु-धर्मों का सवाद न करे ।
२१. निर्मल और प्रशान्त भिक्षु पाप-धर्म
( असाधु-धर्म ) की स्थापना करने वालों का परिहास न करे।" तटस्थ रहे।" सत्य कठोर होता है, इसे जाने । " न अपनी तुच्छता प्रदर्शित करे" और न अपनी प्रशंसा करे ।
२२. भिक्षु किसी पदार्थ के प्रति अशंकित हो, फिर भी सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे ।" प्रतिपादन में विभज्यवाद (भजनीयवाद या स्याद्वाद) का " प्रयोग करे। आशुप्रज्ञ मुनि धर्म के लिए समुत्थित पुरुषों के साथ" बिहार करता हुआ दो भाषाओं" (सत्य भाषा और व्यवहार भाषा) का समतापूर्वक " प्रयोग करे ।
२३. (बक्ता के वचन को कोई श्रोता पदार्थ
रूप में जान लेता है और कोई उसे यथार्थ रूप में नहीं जान पाता ।" उस ( मंदमति) को वैसे-वैसे ( हेतु दृष्टांत आदि के द्वारा) भली-भांति समझाए किन्तु कर्कश वचन का प्रयोग न करे।" कहीं भी उसकी भाषा की हिंसा ( तिरस्कार ) न करे ।" शीघ्र समाप्त होने वाली बात को न लंबाए । “
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