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प्र०१४ : ग्रन्थ : श्लोक २४-२७
सूयगडो १ २४.समालवेज्जा पडिपुण्णभासी णिसामिया समियाअट्ठदंसी । आणाए सिद्धं वयणं भिजुजे अभिसंधए पावविवेग भिक्खू ॥
५६३ समालपेत् प्रतिपूर्णभाषी, निशम्य सम्यग् अर्थदर्शी । आज्ञया सिद्धं वचनं अभियुञ्जीत, अभिसंधत्ते पापविवेक भिक्षः ।।
२५.अहाबुइयाइं सुसिक्खएज्जा
जएज्ज या णाइवेलं वएज्जा। से दिद्विमं दिट्टि ण लसएज्जा से जाणइ भासिउं तं समाहि॥
यथोक्तानि
सुशिक्षेत, यतेत च नातिवेलं वदेत् । स दृष्टिमान् दृष्टि न लूषयेत्, स जानाति भाषितुं तं समाधिम् ।।
२४. आचार्य के पास सुनकर भलीभांति
अर्थ को देखने वाला भिक्षु संगत बात कहे," अर्थपूर्ण और अस्खलित वचन बोले," आज्ञा-सिद्ध वचन का प्रयोग करें और पाप का विवेक करने वाले
वचन का संधान करे। २५. यथोक्त वचन को" सम्यक् प्रकार से
सीखे, उसे क्रियान्वित करे और मर्यादा का अतिक्रमण कर न बोले।" वह दृष्टिमान् भिक्षु दृष्टि को खंडित या दूषित न करे ।" ऐसा भिक्षु ही उस कवलिक समाधि को कहने की विधि
जान सकता है। २६. सिद्धांत को यथार्थरूप में प्रस्तुत करे,
(अपरिणत को) रहस्य न बताए," सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे। शास्ता की भक्ति और परम्परा के अनुसार वाद (सिद्धान्त) और श्रुत का सम्यक् प्रतिपादन करे।
२६.अल्सए णो पच्छण्णभासी
णो सुत्तमत्थं च करेज्ज अण्णं । सत्थारभत्तो अणवीचि वायं सुयं च सम्म पडिवादएज्जा ॥
अलूषकः नो प्रच्छन्नभाषी, नो सूत्रमर्थं च कुर्याद् अन्यम् । शास्तृभक्तिः अनुवीचि वादं, श्रतं च सम्यक् प्रतिपादयेत् ॥
२७.से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च
धम्मं च जे विदति तत्य तत्थ । आएज्जवक्के कुसले वियत्ते से अरिहइ भासिउं तं समाहि ॥
स शुद्धसूत्रः उपधानवांश्च, धर्म च यो विन्दति तत्र तत्र । आदेयवाक्यः कुशलः व्यक्तः, स अर्हति भाषितुं तं समाधिम् ॥
२७. जो सूत्र का शुद्ध उच्चारण करता
है," तपस्वी है," धर्म को विविध दृष्टिकोणों से प्राप्त करता है, जिसका वचन लोकमान्य होता है, जो कुशल (आत्मज्ञ) है और व्यक्त (परिणत) है, वह (ग्रन्थी या शास्त्रज्ञ भिक्षु) उस कैवलिक समाधि का प्रतिपादन कर सकता है।
-ऐसा मैं कहता हूं।
-ति बेमि॥
-इति ब्रवीमि॥
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