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चउद्दसमं अज्झयणं: चौदहवां अध्ययन
गंथो : ग्रन्थ
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
१.गंथं विहाय इह सिक्खमाणो उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा। ओवायकारी विणयं सुसिक्खे जे छेए से विप्पमादं ण कुज्जा॥
ग्रन्थं विहाय इह शिक्षमाणः, उत्थाय सुब्रह्मचर्यः वसेत् । अवपातकारी विनयं सुशिक्षेत्, यश्छेकः स विप्रमादं न कुर्यात् ।।
१. ग्रन्थ (परिग्रह) को' छोड़ भावग्रन्थ (श्रु तज्ञान) को प्राप्त कर, जिन-शासन में शिक्षा प्राप्त करता हुआ प्रवजित हो गुरुकुल-वास में रहे', निर्देश का पालन करे और विनय का' अभ्यास करे । जो चतुर होता है वह प्रमाद नहीं करता।
२. जहा दिया-पोतमपत्तजातं सावासगा पवितुं मण्णमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजायं ढंकादि अव्वत्तगमं हरेज्जा।
यथा द्विजपोतमपत्रजातं, स्वावासकात् प्लवितुं मन्यमानः । तमशक्तं तरुणमपत्रजातं, ध्वांक्षादिः अव्यक्तगमं हरेत् ।।
२. जैसे पूरे पंख आए बिना पक्षी का बच्चा अपने घोंसले से उड़ना चाहता है, किन्तु वह उड़ नहीं सकता। उड़ने में असमर्थ उस पंखहीन बच्चे को कौए' आदि उठाकर ले जाते हैं।'
३. एवं तु सिक्खे वि अपुट्टधम्मे णिस्सारं सिमं मण्णमाणो। दियस्स छावं व अपत्तजातं हरिसु णं पावधम्मा अणेगे।
एवं तु शैक्षोऽपि अपुष्टधर्मा, निस्सारं वृषिमन्तं मन्यमानः । द्विजस्य शावमिव अपत्रजातं, अहार्षः पापधर्माणः अनेके ।
३. इसी प्रकार अपुष्ट-धर्म वाला' शैक्ष (नव-दीक्षित) चारित्र को निस्सार मानकर (गुरुकुल-वास से) निकलना चाहता है। उसे अनेक पाप-धर्म वाले' वैसे ही हर लेते हैं जैसे पंखहीन पक्षी के बच्चे को कौए आदि ।
४. ओसाणमिच्छे मणुए समाहि अणोसिते गंतकरे ति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं ण णिक्कसे बहिया आसुपण्णो॥
अवसानमिच्छेद् मनजः समाधि, अनषितो नान्तकरः इति ज्ञात्वा । अवभाषमाणः द्रव्यस्य वित्तं, न निष्कसेतु बहिराशुप्रज्ञः ॥
४. जो गुरुकुल-वास में" नहीं रहता वह साधु (असमाधि या संसार का) अन्त नहीं कर सकता-यह जानकर" शिष्य गुरुकुलवास में आजीवन रहने और समाधि प्राप्त करने की इच्छा करे । गुरु साधु के" वित्त (या वृत्त) पर" अनुशासन करता है", इसलिए आशुप्रज्ञ शिष्य" गुरुकुलवास से बाहर न निकले।
५.जे ठाणो या सयणासणे या परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते । समितोसु गुत्तीसु य आयपण्णे वियागरेंते य पुढो वएज्जा ॥
यः स्थानतश्च शयनासनयोश्च, पराक्रमे चापि सुसाधुयुक्तः । समितिषु गुप्तिषु च आत्मप्रज्ञः, व्याकुवंश्च पृथग वदेत् ॥
५. स्थान, शयन, आसन और प्रत्येक चेष्टा
में जो सु-साधुओं से युक्त तथा समितियों और गुप्तियों में आत्मप्रज्ञ" होता है वह (दूसरों को) कहता है तो बहुत अच्छे ढंग से कह सकता है।
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