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सूयगडो १
अध्ययन ६ : टिप्पण ५ यहां धर्म का अर्थ-मत या दार्शनिक परम्परा है। सभी धर्म वाले (निर्वाणवादी परंपरा को स्वीकार करने वाले) निर्वाण (मोक्ष) की ही आकांक्षा करते हैं । वे अपने दर्शन का प्रयोजन निर्वाण की प्राप्ति ही मानते हैं।'
श्लोक २५: ५५. श्लोक २५
चूणिकार और वृत्तिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त पुढोवमे, धुणती, विगयगेही आदि शब्दों के वाच्यार्थ को अलग-अलग मान कर स्वतंत्र व्याख्या की है । उनके अनुसार इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है
पुढोवमे-पृथ्वी सर्वसहा है। भगवान् महावीर भी उसकी भांति सर्वसह थे—सभी प्रकार के परीषह और उपसर्गों को सम्यकरूप से सहते थे। अथवा जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों के लिए आधारभूत है उसी प्रकार भगवान महावीर भी अभयदान या सदुपदेश के कारण समस्त प्राणियों के आधार थे ।
धुणती- आठ प्रकार के कर्मों को प्रकंपित करने वाले, कर्मों का अपनयन करने वाले।' विगयगेही-बाह्य या आभ्यन्तर वस्तुओं के प्रति अनासक्त।' सणिहि-सन्निधि का अर्थ है-संग्रह । द्रव्य सन्निधि, धन-धान्य आदि है और भाव सन्निधि है-कषाय क्रोध आदि । चूर्णिकार ने सन्निधि का वैकल्पिक का अर्थ कर्म किया है । वीतराग के कर्म का सांपरायिक बन्ध होता है।' हमने इनकी व्याख्या कार्य-कारणभाव के आधार पर की है।
भगवान महावीर पृथ्वी के समान सहिष्णु थे, इसलिए उन्होंने कर्म-शरीर को प्रकंपित किया। वे अनासक्त थे, इसलिए उन्होंने संग्रह नहीं किया।
सहिष्णुता कर्मों के अपनयन का मुख्य हेतु है । जो सहिष्णु नहीं होता वह समभाव नहीं रख सकता। राग-द्वेष से कर्मों का बंध होता है।
___संग्रह करने का एकमात्र हेतु है गृद्धि, आसक्ति । जो आसक्त नहीं होता, अनासक्त होता है, वह सर्वत्र संतोष का अनुभव करता है । संतुष्ट व्यक्ति संग्रह नहीं करता। वह अभाव में भी व्याकुल नहीं होता। महाभवोघं
चूर्णिकार ने इसका अर्थ कर्म-समुद्र' और वृत्तिकार ने संसार-समुद्र किया है।' १ (क) चूणि, पृ० १४६ : निव्वाणश्रेष्ठा हि सर्वधर्माः, निर्वाणफला निर्वाणप्रयोजना इत्यर्थः, कुप्रावचनिका बपि हि निर्वाणमेव
काङ्क्षन्ते इति । (ख) वृत्ति, पत्र १५० निर्वाणश्रेष्ठाः मोक्षप्रधाना भवन्ति, कुप्रावचनिका अपि निर्वाणफलमेव स्वदर्शनं बुबते। २. (क) चूणि, पृ०१४६ : जधा पुढवी सव्वफाससहा तथा सो वि। (ख) वृत्ति, पत्र १५१ : स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाधारा वर्तते तथा सर्वसत्त्वानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद्वा
सत्त्वाऽऽधार इति, यदि वा यथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान सम्यक् सहत इति । ३ (क) चूणि, पृ० १४६ : धुणोते अष्टप्रकारं कर्मति वाक्यशेषः ।
(ख) वृत्ति पत्र १५१ : धुनाति अपनयत्यष्टप्रकारं कर्मेति शेषः । ४. (क) चूणि, पृ० १४६ : बाह्य-ऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु विगता यस्य ग्रेधी स भवति विगतग्रेधी ।
(ख) वृत्ति पत्र १५१ : विगता प्रलोना सबाह्याऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु 'गृद्धिः' गार्यमभिलाषो यस्य स विगतगृद्धिः । ५ (क) चूणि, पृ० १४६ : सन्निधानं सन्निधिः, द्रव्ये आहारादीनाम्, भावे क्रोधादिनाम् । (ख) वृत्ति, पत्र १५१ । सन्निधानं सन्निधिः, स च द्रव्यसन्निधिः धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदरूपः भावसन्निधिस्तु माया क्रोधादयो
वा सामान्येन कषायाः। ६. चूणि पृ० १४६ : कर्म वा सन्निधिः, यत् साम्परायिकं बध्नातीत्यर्थः । ७. चूणि, पृ० १४६ : महामवोधं.......... कर्मसमुद्रः । ८. वृत्ति, पत्र १५१ : महाभवौघं चतुर्गतिकं संसारसागरम् ।
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