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अदृस्सरे ते
तं
तृषादिता
आर्ततरं रसन्ति
सूयगडो १
२४१ अ०५: नरकविभक्ति : श्लोक २५-३० २५. पविखप्प तासु पपचंति बाले प्रक्षिप्य तासु प्रपचन्ति बालान्, २५. नरकपाल आर्त्त और करुण स्वर से
अदृस्सरे ते कलुणं रसंते। आर्तस्वरान् तान् करुणं रसतः । आक्रन्दन करने वाले उन अज्ञानी नैरतण्हाइया ते तउतंबतत्तं तृषादितास्ते अपुताम्रतप्तं, यिकों को कुंभी में डालकर पकाते हैं। पज्जिज्जमाणट्टयरं रसंति ।२५॥ पाय्यमानाः आर्त्ततरं रसन्ति ।। प्यास से व्याकुल नैरयिकों को जब तपा
हुआ शीशा और तांबा पिलाया जाता है तब वे अत्यन्त आर्त स्वर में
चिल्लाते हैं। २६. अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता आत्मनात्मानमिह वञ्चयित्वा, २६. पूर्ववर्ती अधम भवों में सैंकड़ों-हजारों
भवाहमे पुव्वसए सहस्से । भवाधमे पूर्वशते सहस्र । बार स्वयं से स्वयं को ठग कर वे चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणः, क्रूर कर्म करने वाले प्राणी नरकावास जहाकडे कम्म तहा से भारे ।२६। यथाकृतं कर्म तथा तस्य भारः ॥ में पड़े रहते हैं। जैसा कर्म किया जाता
है, वैसा ही उसका भार (दुःख-परिमाण) होता है।५८
२७. समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा संमयं
कलषमनार्या, इठेहि कंतेहि य विष्पहूणा। इष्टः कान्तश्च विप्रहीनाः । ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे ते दुरभिगन्धे कृष्णे च स्पर्श, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ।२७। कर्मोपगाः कूणपे आवसन्ति ।
२७. वे अनार्य पाप" का अर्जन कर, इष्ट
और कांत विषयों से विहीन हो, कर्म की विवशता से दुर्गन्ध-युक्त और अनिष्ट स्पर्श वाले अपवित्र स्थान में आवास करते हैं।
-त्ति बेमि॥
-इति ब्रवीमि ।।
----ऐसा मैं कहता हूं।
बोनो उद्देसो : दूसरा उद्देशक
२८. अहावरं सासयदुक्खधम्म अथापरं शाश्वतदुःखधर्म,
तं भे पवक्खामि जहातहेणं । तद् भवद्भ्यः प्रवक्ष्यामि यथातथेन । बाला जहा दुक्कडकम्मकारी बाला यथा दुष्कृतकर्मकारिणो, वेयंति कम्माइं पुरेकडाई।१॥ वेदयन्ति कर्माणि पुराकृतानि ।।
२८. अब मैं तुम्हे शाश्वत दुःख-धर्म वाले
दूसरे नरकों के विषय में यथार्थरूप में बताऊंगा। अज्ञानी प्राणी जैसे दुष्कृत कर्म करते हैं वैसे ही उन पूर्वकृत कर्मों का फल भोगते हैं।
२६. हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं हस्तयोः पादयोश्च बद्धवा,
उदरं विकत्तंति खुरासिएहि । उदरं विकर्त्तयन्ति क्षुरासिकैः । गेण्हित्तु बालस्स विहत्तु देहं गृहीत्वा बालस्य विहत्य देह, वद्धं थिरं पिट्टउ उद्धरंति ।२॥ वज्र स्थिर पृष्ठत उद्धरन्ति ।।
२६. नरकपाल नैरयिकों के हाथ और पैर
बांधकर छुरे और तलवार से उनके पेट फाडते हैं, उन्हें पकड़ शरीर को हतप्रहत कर पीठ की" सुदृढ़ चमड़ी को बीच में बिना तोड़े उधेड़ते हैं।
३०. बाहू पकत्तंति य मूलओ से बाहू प्रकर्तयन्ति च मूलतस्तस्य,
थूलं वियासं मुहे आडहंति । स्थलं विकाशं मुखे आदहन्ति । रहंसि जुत्तं सरयंति बालं रथे युक्तं सारयन्ति बाल आरुस्स विझति तुदेण पढें ।३। आरुष्य विध्यन्ति तोदेन पृष्ठे॥
३०. वे नैरयिक की भुजाओं को मूल से ही
काटते हैं। उसके मुंह को फाड़ कर बड़े-बड़े (तपे हुए लोहे के) गोलों से उसे जलाते हैं। उस अज्ञानी को रथ में जोत कर चलाते हैं और रुष्ट होकर पीठ पर कोड़े मारते हैं।"
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