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________________ सूयगडो १ २४० १९. पाणेहि णं पाव विभोजयंति तं मे पवरसामि महाराणं । दंडेहि तत्था सरयंति बाला प्राणैः पापा वियोजयन्ति तद् भवद्द्भ्यः प्रवक्ष्यामि यथातथेन । दण्डैस्त्रस्तान् स्मारयन्ति बालाः, सम्वेहि दंडेहि पुराकएहि । १६ । सर्वैः " दण्डे पुराकृतैः ॥ २०. से हम्ममाणा परगे पति पुष्णे दुरुयस्स महाभितावे । ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभवखी तुति कम्मोगया किमीहि ॥२०॥ । २१. समा कसिणं पुण घम्मठाणं गाटोवणीयं अदुक्खधम्मं । अंदू पविखप्य विहतु देहं वेण सीसं सेऽभितावयंति । २१॥ २३. ते तिप्पमाणा तलसंपुड व्व राइदियं तत्थ थणंति बाला । गलति ते सोणिवपूयमंसं पन्जोइया Jain Education International २४. जइ ते सुया लोहियपूयपाई बालागणी तेपगुणा परेणं । कुंभी महंताऽहियपोरसीया समूसिया लोहिपूयपुण्णा | २४| ते पूर्णे हन्यमाना नरके पतन्ति, 'दुस्वरस' महाभितापे । ते तत्र तिष्ठन्ति ' दुरूव' भक्षिण:, तुदुद्यन्ते कर्मोपगता: कृमिभिः ॥ सदा कृत्स्नं पुनर्धर्मस्थानं, गाढोपनीतमतिदुः खधर्मम् अन्दूषु प्रक्षिप्य विहत्य देहं, वेधेन शीर्षं तस्याभितापयन्ति ॥ २२. छिति बालस्स सुरेण णवर्क ओट्ठे विछिदंति दुवे विकण्णे । जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमेत्तं तिक्खाहि सूलाहि भितावयंति । २२ ॥ तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥ प्र० ५ : नरकविभक्ति: श्लोक १६-२४ १६. दुष्ट नरकपाल नारकियों के प्राणों (शरीर के अवयवों और इन्द्रियों) का वियोजन करते हैं। (वे ऐसा क्यों करते हैं ) उसका यथार्थ कारण मैं तुम्हें बताऊंगा । वे विवेकशून्य नरकपाल दंड से संत्रस्त नैरयिकों को उनके पहले किए हुए सब पापों की याद दिलाते हैं । छिन्दन्ति बालस्य क्षुरेण न औष्ठ अपि छिन्दन्ति द्वावपि कर्णौ । जिह्वां विनिष्कास्य वितस्तिमात्रां, खारपदिद्धियंगा | २३ | प्रद्योतिताः ते तिप्यमानास्तलसंपुट इव, रात्रिदिवं तत्र स्वनन्ति बालाः । गलन्ति ते शोणितपूवमासं क्षारप्रदिग्धाङ्गाः ॥ यदि तव श्रुता लोहितपूयपाचिनी, वालाग्नितेजोगणा परेण महत्यधिकपौरुषीया लोहितपूयपूर्णा ।। कुम्भी समुच्छ्रिता For Private & Personal Use Only 1 २०. वे नारकीय जीव नरकपालों द्वारा पीटे जाने पर, छुपने के लिए इधर-उधर दौड़ते हुए, महान् संतापकारी, मल से भरे हुए, " नरकावास में जा पड़ते हैं।' वे अपने कर्म के वशीभूत होकर मल खाते हैं और कृमियों द्वारा काटे जाते हैं। म ४८ २१. नैरयिकों के रहने का संपूर्ण स्थान सदा तापमय होता हैं। वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यन्त दुःखमय है । नरकपाल उनके शरीर को हृत प्रहत कर, बेड़ियों में डाल सिर को बींध, उन्हें ताते है। 7 २२. वे नरकपाल उस अज्ञानी नैरयिक का छुरे से नाक, होठ और दोनों कान काटते हैं और जीभ को वित्ता भर बाहर निकाल कर तीखे शूलों से बींधते हैं । २३. तप के संपुट की भांति" हाथों और पैरों को संपुटित कर देने पर वे अज्ञानी नैरयिक वहां रात-दिन चिल्लाते हैं। जले हुए तथा खार छिड़के हुए शरीर से लोही, पीब और मांस गिरते रहते हैं । 1 २४. यदि तुमने सुना हो, २ नरक में पुरुष से बड़ी" ची एक महान कभी" है। वह रक्त और पीब को पकाने वाली, अभिनव प्रज्वलित अग्नि से अत्यन्त तप्त और रक्त तथा पीब से भरी हुई है । www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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