________________
सूयगडो १
२३६
प्र० ५: नरकविभक्ति: श्लोक १३-१८
नैरयिकों के रहने का वह स्थान सदा तापमयर और करुणा उत्पन्न करने वाला है। वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यन्त दुःखमय है।"
१३. चत्तारि अगणीओ समारभेत्ता चतुरोग्नीन्
समारभ्य, १३. क्रूरकर्मा नरकपाल नरकावास में चारों जहि करकम्मा भितवेंति बालं। यस्मिन क्र रकर्माणोऽभितापयन्ति बालम्।। दिशाओं में अग्नि जलाकर उन अज्ञानी ते तत्थ चिट्ठतऽभितप्पमाणा ते तत्र तिष्ठन्त्यभितप्यमाना :, नारकों को तपाते हैं ।५ वे ताप सहते मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता ॥१३॥ मत्स्या इव जीवन्त उपज्योतिःप्राप्ताः ।। हुए वहां पड़े रहते हैं, जैसे अग्नि के
समीप ले जाई गई जीवित मछलियां"। १४. संतच्छणं णाम महाभितावं सन्तक्षणं नाम महाभितापं, १४. संतक्षण" नाम का महान् संतापकारी
ते णारगा जत्थ असाहुकम्मा। तान् नारकान् यत्र असाधुकर्माणः ।। एक नरकावास है, जहां हाथ में कुठार हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं हस्तयोः पादयोश्च बध्वा लिए हुए नरकपाल अशुभकर्म वाले उन फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ।१४। फलकमिव तक्ष्णुवन्ति कुठारहस्ताः ॥ नैरपिकों के हाथों और पैरों को
बांध कर उन्हें फलक की भांति छील डालते हैं।
१५. रुहिरे पुणो वच्च-समुस्सियंगे रुधिरे पुनः वर्चःसमच्छिताङ्गान्, भिण्णुत्तिमंगे परिवत्तयंता। भिन्नोत्तमाङ्गान् परिवर्तयन्तः । पयंति णं णेरइए फुरते पचन्ति नैरयिकान् स्फुरतः, सजीवमच्छे व अयो-कवल्ले ॥१५॥ सजीवमत्स्यानिवायस्-'कवल्ले' ॥
१५. वे नरकपाल खून से सने, मल से
लथपथ, सिर फूटे, तड़फते नरयिकों को उलट-पुलट करते हुए उन्हें जीवित मछलियों की भांति लोहे की कडाही में पकाते हैं।
१६. णो चेव ते तत्थ मसीभवंति नो चैव ते तत्र मषीभवन्ति,
ण मिज्जई तिव्वभिवेयणाए। न म्रियन्ते तीव्राभिवेदनया । तमाणुभागं अणुवेययंता तमनुभागमनुवेदयन्तः, दुक्खंति दुक्खो इह दुक्कडेणं ।१६। दुःखन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ॥
१७. तहिं च ते लोलणसंपगाढे तस्मिश्च ते लोलनसंप्रगाढे,
गाढं सुतत्तं अगणि वयंति। गाढं सुतप्तमग्नि व्रजन्ति । ण तत्थ सायं लभंतीऽभिदुग्गे न तत्र सातं लभन्तेऽभिदुर्ग, अरहियाभितावे तह वी तवेति ।१७। अरहिताभितापे तथापि तापयन्ति ।।
१६. वे वहां (पकाने पर भी) जल कर
राख नहीं होते । तीव्र वेदना से पीड़ित होकर भी वे नहीं मरते ।" वे अपने किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं और अपने ही दुष्कृत से दुःखी बने हुए
दुःख का अनुभव करते हैं। १७. वे शीत से व्याप्त नरकावास में (शीत
से पीड़ित होकर) घनी धधकती आग की ओर जाते हैं। किन्तु उस दुर्गम स्थान में वे सुख को प्राप्त नहीं होते । वे निरंतर ताप वाले स्थान में चले जाते हैं, फिर नरकपाल (गरम तेल
डाल कर) उन्हें जलाते हैं।" १८. वहां दुःख से निकले हुए शब्दों का
कोलाहल, नगर के सामूहिक हत्याकांड के समय होने वाले कोलाहल की भांति सुनाई देता है। उदीर्ण कर्म वाले नरकपाल,"बड़े उत्साह के साथ, उदीर्ण कर्म वाले नैरयिकों को बार-बार सताते हैं ।
१८. से सुव्वई गरवहे व सद्दे अथ श्रूयते नगरवध इव शब्दः,
दुहोवणीताण पदाण तत्थ । दुःखोपनीतानां पदानां तत्र । उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा उदीर्णकर्मणां उदीर्णकर्माणः, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति ।१८। पुनः पुनस्ते सरभसं दुःखयन्ति ।।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org