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________________ सूयगडो १ २७२ प्रध्ययन ५: टिप्पण १२५-१२८ होते हैं, इसलिए स्पर्श शब्द का प्रयोग हुआ है।' प्राधीन साहित्य में इसका बहुलता से प्रयोग मिलता है। गीता में इसका अनेक बार प्रयोग हुआ है-स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यान् ।' (गीता ५।२७)। 'मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय !' (गीता २।१४)। 'बाह्यस्पर्शेष्वासक्तात्मा' (गीता ५२२१) 'ये हि संस्पर्शजा भोगाः' (गीता श२२)। वृत्तिकार ने स्पर्श का अर्थ-दुःख किया है । ये दुःख तीन प्रकार से आते हैं- नरकपालों द्वारा कृत, परस्पर उदीरित और स्वाभायिक रूप से प्राप्त । १२५. (एगो सयं............ वह अकेला ही दुःख का अनुभव करता है। वह असहाय हो जाता है क्योंकि, जिन-जिनके लिए उसने पाप-कर्म किए थे, वे दुःख के अनुभव में हाथ नहीं बंटाते । कहा भी है- मैंने अपने परिजनों के लिए अनेक दारुण कर्म किए हैं। फल-भोग के समय वे सब भाग गए । मैं अकेला ही उनको भोग रहा हूं।' श्लोक ५० १२६. जिसने जो जैसा (जं जारिसं) यहां 'यत्' कर्म का द्योतक है और 'यादृश' उस वार्म के अनुभाव और स्थिति का । मंद, मध्यम और तीव्र अध्यवसायों से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों का बंध होता है। १२७. परलोक में (संपराए) इसका अर्थ है-परलोक । चूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ संसार और वैकल्पिक अर्थ 'परलोक' किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल 'संसार' किया है।' १२८. दुःखी प्राणी (दुक्खी) इसका अर्थ है-कर्मयुक्त प्राणी। दुःख का अनुभव दुःखी प्राणी ही करता है। अदुःखी प्राणी कभी दुःख का अनुभव नहीं करता। १. चूणि, पृ० १३६ : फुसंतीति फासाणि, एगग्गहणे गहणं, सद्दाणि वि रूव-रस-गंध-फासाणीति । स्पर्श ग्रहणं तु ते तत्रोत्कटा दुःखतमाश्च । २. वृत्ति, पत्र १४० : स्पर्शाः दुःखविशेषाः परमाधामिकजनिताः परस्परापादिताः स्वाभाविका वेति अतिकटवो रूपरसगंधस्पर्शशब्दाः अत्यंतदुःसहाः। ३. वृत्ति, पत्र १४० : एकः-असहायो यवयं तत्पापं समजितं ते रहतिस्तत्कर्मविपाकजं दुःख मनुभवति, न कश्चिद् दुःखसंविभागं गृह्णातीत्यर्थः, तथा चोक्तम् मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं, गतास्ते फलभोगिनः ॥ ४ (क) चूणि, पृ० १३६ : जारिसाणि तिव्व-मंद-मज्झिमअज्भवसाएहि जघण्णमज्झिमुक्किट्ठठितीयाणि कम्माणि कताणि तं तधा अणभवंति। (ख) वृति, पत्र १४० । ५.णि, पृ० १३६, १४० : संपरागो णाम संसारः, संपरीत्यस्मिन्निति सम्परायः, कर्मफलोदयेन वा नरगं संपरागिज्जतीति सम्परागः। ६. वृत्ति, पत्र १४० : सम्पराये-संसारे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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