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सूयगडो १
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प्रध्ययन ५: टिप्पण १२५-१२८ होते हैं, इसलिए स्पर्श शब्द का प्रयोग हुआ है।'
प्राधीन साहित्य में इसका बहुलता से प्रयोग मिलता है। गीता में इसका अनेक बार प्रयोग हुआ है-स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यान् ।' (गीता ५।२७)। 'मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय !' (गीता २।१४)। 'बाह्यस्पर्शेष्वासक्तात्मा' (गीता ५२२१) 'ये हि संस्पर्शजा भोगाः' (गीता श२२)।
वृत्तिकार ने स्पर्श का अर्थ-दुःख किया है । ये दुःख तीन प्रकार से आते हैं- नरकपालों द्वारा कृत, परस्पर उदीरित और स्वाभायिक रूप से प्राप्त । १२५. (एगो सयं............
वह अकेला ही दुःख का अनुभव करता है। वह असहाय हो जाता है क्योंकि, जिन-जिनके लिए उसने पाप-कर्म किए थे, वे दुःख के अनुभव में हाथ नहीं बंटाते । कहा भी है- मैंने अपने परिजनों के लिए अनेक दारुण कर्म किए हैं। फल-भोग के समय वे सब भाग गए । मैं अकेला ही उनको भोग रहा हूं।'
श्लोक ५०
१२६. जिसने जो जैसा (जं जारिसं)
यहां 'यत्' कर्म का द्योतक है और 'यादृश' उस वार्म के अनुभाव और स्थिति का । मंद, मध्यम और तीव्र अध्यवसायों से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों का बंध होता है। १२७. परलोक में (संपराए)
इसका अर्थ है-परलोक । चूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ संसार और वैकल्पिक अर्थ 'परलोक' किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल 'संसार' किया है।' १२८. दुःखी प्राणी (दुक्खी)
इसका अर्थ है-कर्मयुक्त प्राणी। दुःख का अनुभव दुःखी प्राणी ही करता है। अदुःखी प्राणी कभी दुःख का अनुभव नहीं करता।
१. चूणि, पृ० १३६ : फुसंतीति फासाणि, एगग्गहणे गहणं, सद्दाणि वि रूव-रस-गंध-फासाणीति । स्पर्श ग्रहणं तु ते तत्रोत्कटा
दुःखतमाश्च ।
२. वृत्ति, पत्र १४० : स्पर्शाः दुःखविशेषाः परमाधामिकजनिताः परस्परापादिताः स्वाभाविका वेति अतिकटवो रूपरसगंधस्पर्शशब्दाः
अत्यंतदुःसहाः। ३. वृत्ति, पत्र १४० : एकः-असहायो यवयं तत्पापं समजितं ते रहतिस्तत्कर्मविपाकजं दुःख मनुभवति, न कश्चिद् दुःखसंविभागं गृह्णातीत्यर्थः, तथा चोक्तम्
मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् ।
एकाकी तेन दोऽहं, गतास्ते फलभोगिनः ॥ ४ (क) चूणि, पृ० १३६ : जारिसाणि तिव्व-मंद-मज्झिमअज्भवसाएहि जघण्णमज्झिमुक्किट्ठठितीयाणि कम्माणि कताणि तं तधा
अणभवंति। (ख) वृति, पत्र १४० । ५.णि, पृ० १३६, १४० : संपरागो णाम संसारः, संपरीत्यस्मिन्निति सम्परायः, कर्मफलोदयेन वा नरगं संपरागिज्जतीति
सम्परागः। ६. वृत्ति, पत्र १४० : सम्पराये-संसारे।
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