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________________ सूयगडो १ २७३ प्रध्ययन ५: टिप्पण १२९-१३२ श्लोक ५१: १२६. लक्ष्य के प्रति निश्चित दृष्टि वाला (एगंतदिट्ठी) आगमों में मुनि के लिए 'अहीव एगंतदिट्ठी'-सांप की भांति एकान्तदृष्टि'—यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है।' सांप अपने लक्ष्य पर ही दृष्टि रखता है, वैसे ही मुनि अपने लक्ष्य-मोक्ष को ही दृष्टि में रखे। जो इस प्रकार निश्चित दृष्टि वाला होता है, वह एकान्तदृष्टि कहलाता है। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या में कहा है-जिस श्रमण में यह सत्यनिष्ठा होती है कि 'इदमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं'- यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, वह एकान्तदृष्टि होता है। वृत्तिकार ने निष्प्रकंप सम्यक्त्व वाले को एकान्तदृष्टि माना है। जीव आदि तत्त्व के प्रति जिसकी निश्चल दृष्टि होती है, वह एकान्तदृष्टि है। १३०. स्वाध्यायशील रहे (बुज्झज्ज) इस पद का अर्थ है-अध्ययनशील रहे, स्वाध्यायशील रहे।' १३१. कषाय का वशवर्ती न बने (लोगस्स वसं न गच्छे) 'लोक' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं-जगत्, शरीर, कषाय और प्राणी-गण । जीव और अजीव-इन दोनों के समवाय को उत्तराध्ययन सूत्र में 'लोक' कहा गया है। आचारांग के द्वितीय अध्ययन का नाम 'लोक विचय' है। उसकी नियुक्ति में लोक विचय के अनेक अर्थ मिलते हैं। उनमें 'लोक का एक अर्थ कषाय लोक भी है।' आचारांग में 'लोक' का एक अर्थ शरीर भी मिलता है। लोक का अर्थ 'प्राणी-गण' प्रस्तुत श्लोक के 'सव्वलोए' इस पद की चूणि में मिलता है। यहां 'लोक' शब्द का अभिप्रेत अर्थ कषाय है। चूर्णिकार ने 'लोग' के स्थान में 'लोभ' शब्द मानकर शेष तीनों कषायों का ग्रहण किया है। इसके द्वारा अठारह पाप भी गृहीत हैं। वृत्तिकार ने इस पद का मुख्य अर्थ-अशुभकर्मकारी अथवा उसके फल को भोगने वाला व्यक्ति के वश में न जाए-ऐसा किया है । वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ-कषाय लोक है।" देखें-११८१ का टिप्पण। श्लोक ५२: १३२. धुत का (धुयं) आचारांग के छठे अध्ययन का नाम 'धुत' है। उसके पांच उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक में प्रमुख रूप से एक-एक धुत १. (क) अंतगडदसाओ ३७२ : अहीव एगंतविदिए। (ख) प्रश्नव्याकरण, १०।११ : जहा अही चेव एगविट्ठी। २. चूणि, पृ० १४० : एकान्तदृष्टिरिति इदमेव णिग्गंथं पावयणं । ३. वृत्ति, पत्र १४१ : तथैकान्तेन निश्चला जीवादितत्त्वेषु दृष्टिः-सम्यगदर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टि: निष्प्रकम्पसम्यक्त्व इत्यर्थः । ४. चूणि, पृ० १४० : बुज्झज्ज त्ति अधिज्जेज्ज, अधीतुं च सुणेज्ज, सोतुं बुज्झज्ज । ५. उत्तरज्झयणाणि, ३६०२ : जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। ६. आचारांग नियुक्ति, गाथा १७७ : विजिओ कसायलोगो...... । ७. आयारो २।१२५ का टिप्पण, पृ० ११२, ११३ । ८. चूणि, पृ० १४० : सव्वलोके त्ति छज्जीवणिकायलोके । है. चूणि, पृ० १४० : लोभस्स वसं ण गज्छेज्ज त्ति कसायणिग्गहो गहितो सेसाण वि कोधावीणं बसं ण गच्छेज्जा । अट्ठारस वि ढाणाई। १०. वृत्ति, पत्र १४१ : 'लोकम्' अशुभकर्मकारिणं तद्विपाकफलभुजं वा यदि वा-कषायलोकम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ducation Intomational www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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