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________________ सूयगडो १ २७१ अध्ययन ५:टिप्पण ११६-१२४ ११६. बहुत क्रूर कर्म वाले (बहुकूरकम्मा) चूणिकार ने इसे जो खाते हैं और जो खाए जाते हैं-दोनों के लिए प्रयुक्त माना है। इस प्रकार यह शब्द शृगाल तथा नरयिक-दोनों के लिए प्रयुक्त है।' श्लोक ४८: १२०. सदाज्वला (सयाजला) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-सदा जलने वाली नदी किया है।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-ऐसी नदी जिसमें सदा जल रहता हो या इस नाम की एक नदी।' १२१. पंकिल (पविज्जला) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विस्तृत जल वाली, उत्तान जल वाली, सपाट जल वाली-किया है। वह नदी वैतरणी की तरह गंभीर जल वाली नहीं है।' वृत्तिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. अत्यन्त उष्ण रक्त और पीब से मिश्रित जल वाली। २. रुधिर और पीब से पंकिल । ३. विस्तीर्ण और ऊंडे जल वाली। ४. प्रदीप्त जल वाली। १२२. अग्नि के ताप से जल वाली हैं (लोहविलीणतत्ता) अतिताप से लोह गल जाता है । वह पिघला हुआ लोह बहुत गरम होता है। उसके समान गरम जल वाली। १२३. अकेले चलते हुए (एगायता) वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अकेले, अत्राण, असहाय किया है। चूर्णिकार ने 'एकाणिका' पाठ मानकर उसका अर्थ-असहाय या अद्वितीय किया है। श्लोक ४६: १२४. स्पर्श (दुःख) (फासाइं) चूर्णिकार ने 'स्पर्श' शब्द को शब्द, रूप रस और गंध का संग्राहक माना है। नरक में ये इन्द्रिय-विषय दु:खमय और उत्कट १. चूणि, पृ० १३६ : बहुकूरकम्मा इत्युभयावधारणार्थम्, ये च खादयन्ति ये च खाद्यन्ते । २. चूणि, पृ० १३६ : सदा ज्वलतीति सदाज्वला । ३. वृत्ति, पत्र १३६ : सदा सर्वकालं, जलम्-उदकं यस्यां सा तथा सदाजलाभिधाना वा। ४. चूणि, पृ० १४० : प्रविसृतजला पविजला, विस्तीर्णजला उत्तानजलेत्यर्थः, न तु यथा वैतरणी गम्भीरजला वेगवती च । ५. वृत्ति, पत्र १३६ : प्रकर्षेण विविधमत्युष्णं क्षारपूयरुधिराविलं जलं यस्यां सा प्रविजला यदि वा 'पविज्जले' ति रुधिराविलत्वात पिच्छिला, विस्तीर्णगम्भीरजला वा अथवा प्रदीप्तजला वा । ६. (क) वृत्ति, पत्र १४० : अग्निना तप्तं सत् विलीनं द्रवतां गतं यल्लोहम्-अयस्तवृत्तप्तः, अतितापविलीनलोहसदशजलेत्यर्थः। (ख) चूणि, पृ० १३६ : लोहविलीनसदृशोदका । लोहानि पञ्च काललोहादीनि । ७. वृत्ति, पत्र १४० : 'एगाय' त्ति एकाकिनोऽत्राणाः । ८. चूणि, पृ० १३६ : एकानिका असहाया इत्युक्तम्, अल्पसहाया इत्यर्थः अद्वितीया वा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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