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________________ सूयगडो १ ११३. अत्यन्त उबड़-खाबड़ भूमि वाले ( एतकुडे) एकान्त विषम स्थान, ऐसा स्थान जहां कोई भी समतल भूमि न हौ ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ - एकान्त दुःखोत्पत्ति का स्थान किया है ।" ११४. गलपाश के द्वारा ( कूडेन) 'कूट' का अर्थ है - मृग को पकड़ने का पिंजड़ा। चूर्णिकार के अनुसार स्थान-स्थान पर 'कूटों का निर्माण किया जाता है। वे अदृश्य रहते हैं । मृग उन्हें नहीं देख पाते । वे उधर से भागने का प्रयत्न करते हैं और बार-बार उसमें बंध जाते हैं । * वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- गलयंत्रपाश किया है। संभव है वह रस्सी से बना हुआ गले का फंदा हो, जिससे पशु आदि को बांधा जाता है ।" वैकल्पिकरूप में इसका अर्थ --- पाषाणसमूह भी है । ११५. श्लोक ४६ : २७० प्रस्तुत सूत्र के ११३४ में 'पासयाणि' शब्द का प्रयोग है। वह भी 'पाशयंत्र' - मृगबंधन रज्जु का ही वाचक है। संभव है'कुट और पान' एकार्थक हो । कूट का एक अर्थ - मुद्गर भी है। यह श्लोक चूर्णि में व्याख्यात नहीं है । नैरयिक।" अध्ययन ५ टिप्पण ११३ ११८ श्लोक ४६ : ११६. पूर्वजन्म के शत्रु ( पुव्वमरी) इसका अर्थ है - पूर्वभव के शत्रुओं की तरह आचरण करने वाले नरकपाल अथवा जन्म-जन्म में अपकार करने वाले श्लोक ४७ : ११७. सदा कुपित रहने वाले (सयावकोपा ) इसका अर्थ है -- सदा कुपित रहने वाले । चूर्णिकार ने 'अकोप्पा' पाठ मानकर उसका अर्थ-अनिवार्य, अप्रतिषेध्य किया है । वे शृगाल ऐसे हैं जिनको हटाया नहीं जा सकता । " Jain Education International ११८. सांकलों से बंधे हुए ( संकलियाहि बद्धा) कुछ नै रयिक लोहे की सांकलों से बंधे हुए होते हैं और कुछ नहीं होते । शृगाल सांकलों से बंधे हुए नैरयिकों को खाने लगते हैं । यह देखकर मुक्त नैरयिक अपने बचाव के लिए वहां से भागते हैं । तब श्रृंगाल उनके पीछे दौड़कर उन्हें खा जाते हैं । १. चूमि पृ० १३८ एकूड पाम एकान्तविधमः न तत्र काचित् समा भूमि यत्र ते गच्छन्तो न वसेयुरिति न प्रययु २. वृत्ति पत्र १२२ एकान्तेन कूटानि दु.खोत्पत्तिस्थानानि । ३. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ४. पूर्णि, पृ० १२८ तथावि तम्म दिसा तस्य देसे से उत्तारोतार शिव्यमयवेसे व अदृश्यानि यत्र ते वध्यते । -५ वृत्ति, पृ० १३६ : कूटेन गलयन्त्रपाशादिना पाषाणसमूहलक्षणेन वा । ६. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ७. वृत्ति, पत्र १३६ : पूर्व मरय इवारयो जन्मान्तरवैरिण देव परमाधामिका यदि वा-जन्मान्तरापकारिणो नारकाः । ८. चूर्णि, पृ० १३६ : सदा वा अकोप्पा अनिवार्या अप्रतिषेध्या इत्यर्थः कर्षापणो अकोप्पा इत्यपदिश्यते । अधवा - अकोप्पं ति ( न ) कुपितुं युक्तं भवति । ६. मि १० १३९ लोहाबद्धा: सायन्ति के विस्वशः प्रधावन्तोऽनुधावन्तो अनुधावितुं पाटविया खादन्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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