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________________ सूयगड १ २६६ १०७. खंड-खंडकर नगर - बलि ........बिखेर देते हैं ( कोट्टबल करेंति) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने प्रधानरूप से 'कोट्ट' और 'बलि' को पृथक्-पृथक् मानकर, कोट्ट का अर्थ — तलवार आदि से टुकड़े टुकड़े कर, कूट कर और 'बलि' का अर्थ- बलि देना किया है। वैकल्पिक रूप में 'कोट्टबलि' को एक मानकर 'कोट्ट' का अर्थ नगर और 'बलि' का अर्थ बलि किया है ।' 'कोट्ट' शब्द देशी है । इसका अर्थ है-नगर । श्लोक ४४ : १०८. वैतालिक ( वेयालिए) वृत्तिकार ने इसे परमाधार्मिक देवों द्वारा निष्पादित 'वैक्रिय' पर्वत माना है ।" १०. बहुत ऊंचा (एगायए) वृत्तिकार ने इसका अर्थ- एक शिला से निर्मित बहुत ऊंचा पर्वत किया है।" ११०. अधर में झूलता हुआ (अंतलिक्खे) चूर्णिकार का अभिमत है कि वह पर्वत आकाश - स्फटिक से निर्मित होने के कारण अथवा अंधकार की अधिकता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता । उस पर चढ़ने का केवल मार्ग ही दिखाई देता है । नैरयिक हाथ के स्पर्श से उस मार्ग की खोज करते हैं और मार्ग हाथ लगते ही वे पर्वत पर चढ़ने का प्रयत्न करते हैं। तब पर्वत सिकुड़ने लगता है और वे नैरयिक हतप्रहत होकर नीचे गिर जाते हैं । चूर्णिकार ने एक मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार - वह पर्वत भूमि से संबद्ध लगता है, पर जब नैरयिक उसकी ओर जाते हैं तब वह असंबद्ध लगता है, सिकुड़ जाता है।" १११. काल (मुहत्तगाणं) मुहूर्त का अर्थ है - अड़चालीस मिनट का काल । प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ- सामान्य काल है। उत्तराध्ययन सूत्र ४६ की सुखबोधावृत्ति में मुह का अर्थ दिवस आदि से उपलक्षित काल किया है।' श्लोक ४५ : ११२. अत्यन्त पीड़ित होकर (संबाहिया) पूर्णिकार ने इसका अर्थ स्पृष्ट और वृत्तिकार ने अत्यन्त पीड़ित किया है।" - १. (क) चूर्ण, पृ० १३८ : कुट्टयित्वा कल्पनीभिः खण्डसो बॉल क्रियन्ते । अधवा कोट्टं नगरं वृच्छति, णगरबली वि क्रियन्ते । (ख) वृति पत्र १३८ सान्दारकान् कुट्टयित्वा खण्डशः कृत्यायनि करिति ति नगरबलिवदितश्वेतरच क्षिपन्तीत्यर्थः, यदि वा कोलो " Jain Education International अध्ययन ५ टिप्पण १०७-११२ २. बेशीनाममाला २/४५ : केआरबाणकोट्टा.... कोट्टु नगरम् । २. वृति पत्र १३९ बेदालिए'ति बंच्यिः परमाद्यामिक निष्यादितः पर्वतः । ४. वृत्ति, पत्र १३६ : एगायए - एक शिलाघटितो दीर्घः । ५. पूर्णि, पृ० १३०: अन्तरिक्षः निमूल इत्यर्थः, आकाशस्फाटिकत्वाद न दृश्यते, अन्धकारत्वाद्वा न दृश्यते, केवलमायचणमानते हत्यपरिमोसका एव ततस्ते नामन्ति आगमगपधेण विलग्गारचेत् स च पर्वतः संहन्यते । अन्ये पुनः बले वृश्यत एवासौ, भूमिबद्ध एव चोपलक्ष्यते, न च सम्बद्धः । ६. सुखबोधा वृत्ति, पत्र ६४ : मुहूर्त्ताः - कालविशेषाः दिवसाद्य ुपलक्षणमेतत् । ७. चूर्णि, पृ० १३८ : सम्बाधिताः नाम स्पृष्टाः । वृत्ति पत्र १२ सम्— एकीभावेन बाधिताः पीडिताः । 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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