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सूयगडो १
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अध्ययन ५: टिप्पण १०३-१०६ २. पूर्वजन्म में किए जीव-हिंसा आदि रौद्र कार्यो की स्मृति दिलाते हैं ।
यहां 'रुद्द' शब्द में कोई विभक्ति नहीं है । यहां द्वितीया विभक्ति होनी चाहिए। १०३. हाथीयोग्य भार ढोते हैं (हत्थिवहं वहंति)
हाथीयोग्य भार ढ़ोते हैं अर्थात् हाथी जितना भार ढोता है उतना भार वे नैरयिक ढोते हैं।
इसका वैकल्पिक अर्थ है कि नरकपाल नैरयिकों को हाथी बनाकर उनको भार ढोने के लिए प्रेरित करते हैं अथवा घोड़ा, ऊंट, गधा आदि बनाकर उनसे भार ढुलाते हैं । जिन्होंने अपने पूर्व जन्म में जिन-जिन पशुओं को अधिक भार ढोने के लिए बाध्य किया था, उनको उन-उन पशुओं के रूप में परिवर्तित कर भार ढुलाया जाता है।'
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. जैसे हाथी सवारी के काम आता है वैसे ही नरकपाल उस पर चढ़कर सवारी करते हैं।
२. जैसे हाथी बहुत भार ढोता है, वैसे ही नरकपाल नैरयिकों से बहुत भार ढुलाते हैं। १०४. गर्दन को (ककाणओ)
यह देशी शब्द है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ मर्म-स्थान किया है।' चूर्णिकार ने 'किंकाणतो' पाठ मानकर इसका अर्थ-कृकाटिका (गरदन का पिछला भाग) किया है।'
श्लोक ४३ : १०५. बांस के जालों में (तप्पेहि)
नदी के मुहानों पर बांस की खपचियों से बने हुए 'तप्प' पानी के नीचे रखे जाते हैं। पानी के प्रवाह के साथ-साथ अनेक मत्स्य आते हैं। पानी का बहाव चला जाता है और वे मत्स्य वहीं फंस जाते हैं। फिर उन सब मत्स्यों को एकत्रित कर लिया जाता है।।
वृत्तिकार ने इसे नैरयिकों का विशेषण मानकर 'तर्प काकारान्' किया है । किन्तु 'तर्पक' का कोई अर्थ नहीं दिया है।' १०६. जल से निकाल (समीरिया)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'संपीण्ड्य'---इकट्ठा कर दिया है।' वृत्तिकार ने इसका संस्कृतरूप 'समीरिताः' कर इसका अर्थ 'पाप-कर्मों से प्रेरित' किया है।'
हमने इसका संस्कृतरूप 'समीर्य' किया है। इसका अर्थ है-जल से बाहर निकालकर । १. चूणि, पृ० १३८ : हस्तितुल्यं वहन्तीति हस्तिवत्, हस्तितुल्यं भारं वहन्तीत्यर्थः, हस्तिरूपं वा कृत्वा वाह्यन्ते, अश्वोष्ट्रखरादिरूपं वा
यैर्यथा वाहिताः। २. वृत्ति, पत्र १३८ : हस्तिवाहं वाहयन्ति नरकपालाः, यथा हस्ती वाह्यते समाला एवं तमपि वाहयन्ति, यदि वा-यथा हस्ती
महान्तं भारं वहत्येवं तमपि नारकं वाहयन्ति । ३ वृत्ति पत्र १३८ : ककाणओ त्ति मर्माणि । ४. चूणि, पृ० १३८ : किकाणतो सि त्ति कृकाटिकाए। ५. चूणि, पृ० १३८ : त्रप्पका नदीमुखेषु विदलया वशफाली मया पिंडगासंठिता कज्जंति, ताधे ओसरते उदगे ठविज्छति हेट्ठाहुत्ता, पच्छा
मच्छगा जे तेहि अक्कंता ते गलिते उदगे संपुंजिता घेप्पति । ६. वृत्ति, पत्र १३८ । ७. चूणि, पृ० १३८ : समीरिता नाम सम्पिण्ड्य । ८. वृत्ति, पत्र १३८ : समीरिता: पापेन कर्मणा चोदिताः।
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