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सूयगडो १
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अध्ययन ५: टिप्पण 8८-१०२
श्लोक ४१:
१८. लकड़ी आदि के प्रहार से (वहेण)
इसका संस्कृतरूप है-'व्यथेन' । चूणिकार और वृत्तिकार को इस शब्द से डंडा आदि का प्रहार अभिप्रेत है।' डंडा आदि का प्रहार व्यथा उत्पन्न करता है, इसलिए साध्य में साधन का आरोप कर उसे व्यथा-उत्पादक माना गया है। 88. दोनों ओर से छीले हए फलकों की भांति (फलगा व तट्रा)
जैसे लकड़ी के तख्ते को करवत आदि से दोनों ओर से छीलते हैं, उसी प्रकार नरयिक भी करवत आदि से छीले जाते हैं ।
देखें--आयारो ६।११३ : फलगावयट्ठी। १००. आराओं से (आराहि)
इसका अर्थ है--- चाबुक के अन्त में लगी हुई नुकीली कील ।' पशुओं को हांकने के लिए लकड़ी के चाबुक में एक सिरे पर तीखी कील लगी रहती है। उसे पशु के मर्म-स्थान-गुदा में चुभाया जाता है। उसे 'आरा' कहते हैं । १०१. ढकेले जाते हैं (णियोजयन्ति)
इसका अर्थ है-कार्य में व्याप्त करना। नरकपाल नै रयिकों को तपी हुई लंबी आराओं से बींधते हैं और 'उठ, उठ, चल, चल,' इस प्रकार उन्हें आगे ढकेलते हैं।'
वृत्तिकार के अनुसार नरकपाल नैरयिकों को तपा हुआ तांबा आदि पीने के व्यापार में व्याप्त करते हैं ।'
श्लोक ४२:
१०२. नरकपालों द्वारा क्रूरतापूर्वक कार्यों में व्याप्त होते हैं (अभिजुजिया रुद्द)
चूर्णिकार के अनुसार वे नैरयिक दो प्रकार से रौद्र कार्य में व्या वृत होते हैं१. पूर्वजन्मों में भी वे रौद्र कर्मकारी थे। २. यहां भी वे परस्पर रौद्र वेदना की उदीरणा करते हैं । वृत्तिकार ने इस के दो अर्थ किए हैं:
१. दूसरे नैरयिक को मारने के रौद्र कार्य में व्याप्त होते हैं। १ (क) चूणि, पृ० १३७ : वधेण...............लउडाविघातः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १३८ : व्यथयतीति व्यथो - लकुटादिप्रहारस्तेन । २. (क) चूणि, पृ० १३७ : फलगावतट्ठी त एवं भग्नाङ्ग-प्रत्यङ्ग फलका इव उभयथा प्रकृष्टा: करकयमादीहि तच्छिता।
(ख) वृत्ति, पत्र १३८ : फलकमिवोभाभ्यां क्रकचाविना अवतष्टाः तनुकृताः । ३. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। ४. वृत्ति, पत्र १३८ : विनियोज्यन्ते व्यापार्यन्त इति । ५. चूणि, पृ० १३७ : तप्ताभिः दीर्घाभिराराभिविध्यन्ते, उत्तिष्ठोत्तिष्ठेति गच्छ गच्छति । ६. वृत्ति, पत्र १३८ : तप्तत्रपुपानादिके कर्मणि विनियोज्यन्ते व्यापार्यन्त इति । ७. चणि, पृ० १३८ : अभियुजिता तिविधेण वि रौद्रादीनि कर्माणि.........................ते च रौद्राः पूर्वमभवन, तत्रापि रौद्रा एवं
परस्परतो वेदनां उदीरयन्तः । ८. वृत्ति, पत्र १३८ : अभिजु जिया इत्यादि, रौद्रकर्मण्यपरनारकहननादिके अभियुज्य व्यापार्य यदि वा--जन्मान्तरकृतं रौद्रं सत्त्वोप
घातकार्यम् अभियुज्य स्मारयित्वा ।
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