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मुख्य प्रतिपाद्य परिवर्तित नहीं हुआ है । दिगम्बर साहित्य में प्रस्तुत सूत्र का विषय-वर्णन इस प्रकार मिलता है
सूत्रकृत में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया का निरूपण किया गया है। यह आचर्य अकलंक का प्रतिपादन है।
आचार्य वीरसेन ने धवला में उक्त प्रतिपादन किया है। उसमें स्वसमय-परसमय की प्ररूपणा का प्रतिपादन इससे अति
जयधवला में उन्होंने (आचार्य वीरसेन ने) प्रस्तुत आगम का विषय-वर्णन भिन्न प्रकार से किया है। उसके अनुसार सूत्रकृत में स्वसमय, परसमय तथा स्त्रीपरिणाम-लीबता, अस्फुटता, कामावेश, विभ्रम, आस्फालनसुख, पुंस्कामिता आदि स्त्री के लक्षणों का प्ररूपण किया गया है। समीक्षा
दोनों परम्पराओं में जो विषय-वस्तु का वर्णन है, उससे वर्तमान में उपलब्ध सूत्रकृतांग पर पूर्ण प्रकाश नहीं पड़ता । सूत्रकृतांगनिर्यक्ति का विषय-वर्णन इसका अपवाद है। उसकी रचना प्रस्तुत आगम की व्याख्या के लिए ही लिखी गई थी। इसीलिए उसमें प्रस्तुत आगम का अधिकृत और विशद विषय-वर्णन प्राप्त है।
समवाय और नंदी में प्राप्त सूत्रकृत का विषय-वर्णन पढ़ने से मन पर पहला प्रभाव यही पड़ता है कि प्रस्तुत आगम दर्शनशास्त्रीय (द्रव्यानुयोग) ग्रन्थ है । उक्त दोनों विवरणों में स्त्रीपरिज्ञा आदि अध्ययनों में प्राप्त विषय-वस्तु का कोई उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थराजवार्तिक के वर्णन में मुनि के आचार धर्म का उल्लेख है, किन्तु स्वसमय और परसमय के निरूपण का उल्लेख नहीं है । धवला में उक्त वर्णन के साथ-साथ स्वसमय और परसमय का भी उल्लेख है। जवधवला में स्त्रीपरिणाम का उल्लेख है, जो उपसर्गपरिज्ञा और स्त्रीपरिज्ञा अध्ययनों की ओर इंगित करता है। इन विभिन्न विषय-वर्णनों के अध्ययन के आधार पर दो निष्कर्ष निकाले जा तकते हैं
१. विभिन्न आचार्यों ने अपनी-अपनी रुचि या दृष्टि के अनुसार मुख्य विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन किया और गौण विषयों की उपेक्षा कर दी।
२. प्रस्तुत आगम के प्राचीन रूप का परम्परा-प्राप्त विषय-वर्णन और अद्यतनरूप का विषय-वर्णन मिश्रित हुआ है । उस मिश्रण में कहीं प्राचीन विषय-वर्णन की प्रमुखता है और कहीं अद्यतन विषय-वर्णन की।
यह प्रश्न फिर मन को आन्दोलित करता है कि समवाय और नंदी के संकलन काल में प्रस्तुत आगम का वर्तमान रूप स्थिर हो चुका था, जो श्रुतस्कन्ध और अध्ययनों की संख्या से स्पष्ट प्रतीत होता है, फिर उनमें स्त्रीपरिज्ञा आदि अध्ययनों की सूचना क्यों नहीं दी गई ? क्या संकलन-काल में उनके सामने जो सूत्रकृत रहा, उसमें द्रव्य का प्रतिपादन प्रधान था ? क्या यह प्राप्त सूत्रकृत किसी दूसरी वाचना का है ? ये प्रश्न अभी पर्याप्तरूपेण आलोच्य हैं। बार्शनिक मत
प्रस्तुत सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम तथा बारहवें अध्ययन में और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन में अनेक दार्शनिक मतों का उल्लेख मिलता है। आगमरचना की शैली के अनुसार दार्शनिक आचार्यों के नामो का उल्लेख नहीं है । केवल उनके सिद्धान्तों का प्रतिपादन और अस्वीकार है । वौद्धों के दीघनिकाय के 'सामञफलसुत्त' में जैसे तत्कालीन दार्शनिक मतवादों का वर्णन है, वैसे ही प्रस्तुत आगम में विभिन्न मतवादों का समवसरण है। उपनिषदों में भी यत्र तत्र इन मतवादों का उल्लेख है । श्वेताश्वतर
१. तत्त्वार्थराजवातिक १।२० : सूत्रकृते ज्ञानविनय-प्रज्ञापना-कल्प्याकल्प्य-छेदोपस्थापनाव्यवहारधर्मक्रियाः प्ररूप्यन्ते । २. षट्खंडागम, धवला भाग १, पृ. ६८ : सूदयदं णाम अंगं छत्तोस-पय-सहस्सेहिं गाणाविणयपण्णवणा-कप्पाकप्प-च्छेदोवट्ठाण-ववहार
धम्म-किरियाओ परवेइ ससमय-परसमय-सरूवं च परवेइ । ३. कषायपाहुड, जयधवला भाग १, पृ०१२२ : सूक्यवं णाम अंगं ससमयं परसमयं थोपरिणाम-क्लैब्यास्फुरत्व-मवनावेश-विभ्रमास्फालन
सुख-पुंस्कामिताबिस्त्रीलक्षणं च प्ररूपयति । ४. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू०६०: वो सुयक्खंघा, तेवीसं अज्झपणा।
(ब) नंदी सू० १८२ : दो सुयक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा ।
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