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________________ सूयगडो १ २५. भासमाणो ण भासेज्जा णो य चम्फेज्ज मम्मयं । माइट्राणं वियजेज्जा अणुवी २६. संतमा तहिया भाता वातप्पई । जं जं छणं तं ण वत्तव्वं एसा आणा नियंडिया | २७. होलावायं सहीवायं गोयवायं च णो वए । तुमं तुमं ति अमणुण्णं सव्वसो तं ण वत्तए ॥ २८. अकुसीले सदा निक्खू जो व संसग्गियं भए । सुहरूवा तत्थुवसग्गा परिभेन्ज ते विदू ॥ २६. णण्णत्थ अंतराएणं परगेहे न णिसोयए। गाम कुमारिय णाइवेलं वियागरे ॥ ३०. अणुओ जयमाणो चरियाए पुट्ठो हसे Jain Education International किड्डुं मुणी ॥ उरालेगु परिव्वए । अप्पमत्तो तत्थहियासए ॥ ३१. हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा बुच्चमाणो ण संजले । सुमणो अहियासेज्जा णय कोलाहलं करे । ३२. लद्ध काम ण पत्येज्जा विवेचे एव माहिए। आयरिवाई सिजा बुद्धाणं अंतिए सया ॥ ३२. सुस्समाणो उपासेज्जा सुप्पण्णं सुतवस्सियं । वीरा जे अत्तपष्णेसो धितिमता जिविया ॥ ३६२ भाषमाणो न भाषेत, नो च वलेत्' मर्मकम् । मायिस्थानं विवर्जयेत् । अनुवीचि व्यारणीयात् ॥ सन्ति इमाः तथ्याः भाषाः, यद् उदित्वा अनुतप्यते । यत् क्षणं तत् न वक्तव्यं, एषा आज्ञा नग्रेग्धिकी ॥ 'होला' वादं सखिवाद, गोत्रवादं च नो वदेत् । एवं एवं इति अमनोज्ञं, सर्वशः तद् न वक्तुम् ॥ अकुशीलः सदा भिक्षुः, नो च सांसर्गिकं भजेत् । सुखरूपाः तत्रोपसर्गाः, प्रतिबुध्येत तान् विद्वान् ॥ अन्तरायेण, निषीदेत् । क्रीडां, नान्यत्र न परगृहे ग्राम्यकौमारिकीं नाविवेलं हसे अनुत्सुकः यतमानः चर्यायां स्पृष्टः तत्र १. प्राकृत व्याकरण ४।१७६ : दलिवल्याविसङ्घवम्फौ । २. उचितमिति शेषः । मुनिः ॥ उदारेषु परिव्रजेत् । अप्रमत्तः, अध्यासीत ॥ हन्यमानः न कुप्येत्, उच्यमानः न संज्वलेत् । सुमनाः अध्यासीत, न च कोलाहलं कुर्यात् ॥ लब्धान् कामान् न प्रार्थयेत् विवेक एवं आहृतः । आचरितानि बुद्धानां अन्तिके सुश्रूषमाणः उपासीत, सुप्रज्ञ सुतपस्विकम् । वीराः ये आत्मप्रज्ञैषिणः, शिक्षेत, सदा ॥ धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः ॥ प्र० : धर्म : इलोक २५-३३ २५. बोलता हुआ भी न बोलता-सा रहे", मर्मवेधी वचन" न बोले", (बोलने में ) मायिस्थान का वर्जन करे, सोचकर बोले 19 २६. कुछ सत्य भाषाएं हैं जिन्हें बोलकर मनुष्य पछताता है ।" जो हिंसाकारी वचन" है, उसे न बोले । यह नित्य (महावीर की"" है। २७. हे साथी हे मित्र" हे अमुक-अमुक गोत्र वाले" - इस प्रकार के वचन न बोले ( सम्मान्य व्यक्तियों के लिए) तू-तू- ऐसा अप्रिय वचन सर्वथा न कहे । " २८. भिक्षु सदा अकुशील रहे: कुशीलों के साथ संसर्ग न करे ।" उनके संसर्ग में अनुकूल उपसर्ग" उत्पन्न होते हैं। विद्वान् उन्हें (उपनों को समझे। २६. मुनि किसी बाधा के बिना" गृहस्थ के घर में" न बैठे।" काम-कोडा और कुमार-कीडा करे मर्यादा रहित हो न हंसे।" ३०. सुन्दर पदार्थों के प्रति परिव्रजन करे, चर्या में स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन उत्सुक न हो, संयमपूर्वक अप्रमत्त रहे, उपसर्गों से करे । १०१ ३१. पीटने पर क्रोध न करे, गाली देने पर उत्तेजित न हो, शान्तमन रहकर उन्हें सहन करे, कोलाहल १०५ न करे । ३२. लब्धकामभोगों की इच्छा न करे । कहा गया है । बुद्धों (ज्ञानियों) के आचार की शिक्षा प्राप्त करे । For Private & Personal Use Only इसे विवेक पास सदा १०९ ३३. सुपाने और जानने की इच्छा पूर्वक सुश और सुतपस्वी आचार्य की उपासना करे, जो आचार्य वोर", आत्मप्रज्ञा के अन्वेषी"" धृतिमान् "" और जितेन्द्रिय हैं। www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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